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विवेक-चूडामणि
अंशमें लीन होकर अब अति आनन्दरूपसे स्थित हो गया है, उस आत्मानन्दरूप अमृतप्रवाहसे परिपूर्ण परब्रह्मसमुद्रका वैभव वाणीसे नहीं कहा जा सकता और मनसे मनन नहीं किया जा सकता।
क्व गतं केन वा नीतं कुत्र लीनमिदं जगत्। अधुनैव मया दृष्टं नास्ति किं महदद्भुतम्॥४८४॥
वह संसार कहाँ चला गया? उसे कौन ले गया? यह कहाँ लीन हो गया? अहो ! बड़ा आश्चर्य है जिस संसारको मैं अभी देख रहा था वह कहीं दिखायी नहीं देता। किं हेयं किमुपादेयं किमन्यत्किं विलक्षणम्। अखण्डानन्दपीयूषपूर्णे ब्रह्ममहार्णवे॥४८५ ॥
इस अखण्ड आनन्दामृतपूर्ण ब्रह्म-समुद्रमें कौन वस्तु त्याज्य है? कौन ग्राह्य है? कौन सामान्य है? और कौन विलक्षण है?
न किञ्चिदत्र पश्यामि न शृणोमि न वेदम्यहम्। स्वात्मनैव सदानन्दरूपेणास्मि विलक्षणः॥४८६॥ । अब मुझे यहाँ न कुछ दिखायी देता है, न सुनायी देता है और न मैं कुछ जानता ही हूँ। मैं तो अपने नित्यानन्दस्वरूप आत्मामें स्थित होकर अपनी पहली अवस्थासे सर्वथा विलक्षण हो गया हूँ। नमो नमस्ते गुरवे महात्मने
विमुक्तसङ्गाय सदुत्तमाय। नित्याद्वयानन्दरसस्वरूपिणे
भूम्ने सदापारदयाम्बुधाम्ने ॥४८७॥ यत्कटाक्षशशिसान्द्रचन्द्रिकापातधूतभवतापजश्रमः । प्राप्तवानहमखण्डवैभवानन्दमात्मपदमक्षयं क्षणात्॥ ४८८॥
जिनके कृपाकटाक्षरूप चन्द्रकी स्निग्ध चन्द्रिकाके संसर्गसे संसारतापजन्य श्रमके दूर हो जानेसे मैंने क्षणभरमें अखण्ड ऐश्वर्य और आनन्दमय अक्षय आत्मपद प्राप्त किया है, उन संगरहित, संतशिरोमणि,