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उपदेशका उपसंहार
घटोऽयमिति विज्ञातुं नियमः को न्वपेक्ष्यते। विना प्रमाणसुष्ठुत्वं यस्मिन्सति पदार्थधीः ।। ५३१॥
'यह घड़ा है' ऐसा जाननेके लिये, जिससे वस्तुका ज्ञान होता है, उस प्रमाण-सौष्ठवके अतिरिक्त भला और किस नियमकी आवश्यकता है?
अयमात्मा नित्यसिद्धः प्रमाणे सति भासते। न देशं नापि वा कालं न शुद्धिं वाप्यपेक्षते॥५३२॥
आत्मा नित्य-सिद्ध है, प्रमाणको शुद्धि होते ही वह स्वयं भासने लगता है। [अपनी प्रतीतिके लिये] वह देश, काल अथवा शुद्धि आदि किसीकी भी अपेक्षा नहीं रखता। देवदत्तोऽहमित्येतद्विज्ञानं निरपेक्षकम्। तद्वद्ब्रह्मविदोऽप्यस्य ब्रह्माहमिति वेदनम्॥५३३॥
जिस प्रकार 'मैं देवदत्त हूँ' इस ज्ञानमें किसी नियमकी अपेक्षा नहीं है उसी प्रकार ब्रह्मवेत्ताको 'मैं ब्रह्म हूँ' यह ज्ञान स्वत: ही होता है। भानुनेव जगत्सर्वं भासते यस्य तेजसा।। अनात्मकमसत्तुच्छं किं नु तस्यावभासकम्॥५३४॥
सूर्यसे जैसे जगत् प्रकाशित होता है वैसे ही जिसके प्रकाशसे समस्त असत् और तुच्छ अनात्मपदार्थ भासते हैं उसको भासित करनेवाला और कौन हो सकता है? वेदशास्त्रपुराणानि भूतानि सकलान्यपि। येनार्थवन्ति तं किं नु विज्ञातारं प्रकाशयेत्॥५३५॥
वेद, शास्त्र, पुराण और समस्त भूतमात्र जिससे अर्थवान् हो रहे हैं उस सर्वसाक्षी परमात्माको और कौन प्रकाशित करेगा? एष स्वयंज्योतिरनन्तशक्ति
रात्माप्रमेयः सकलानुभूतिः । यमेव
विज्ञाय विमुक्तबन्धो जयत्ययं ब्रह्मविदुत्तमोत्तमः॥५३६॥