Book Title: Vivek Chudamani
Author(s): Unknown
Publisher: Unknown

View full book text
Previous | Next

Page 129
________________ १३२ विवेक-चूडामणि निश्च न मे प्रवृत्तिर्न च मे निवृत्तिः सदैकरूपस्य निरंशकस्य। एकात्मको यो निविडो निरन्तरो व्योमेव पूर्णः स कथं नु चेष्टते॥५०३॥ मुझ सदा एकरस और निरवयवकी न किसी विषयमें प्रवृत्ति है और न किसीसे निवृत्ति। भला, जो निरन्तर एकरूप घनीभूत और आकाशके समान पूर्ण है वह किस प्रकार चेष्टा कर सकता है। पुण्यानि पापानि निरिन्द्रियस्य निश्चेतसो निर्विकृतेर्निराकृतेः। कुतो ममाखण्डसुखानुभूते बूंते ह्यनन्वागतमित्यपि श्रुतिः॥५०४॥ इन्द्रिय, चित्त, विकार और आकृतिसे रहित मुझ अखण्ड आनन्दस्वरूपको पाप या पुण्य कैसे हो सकते हैं? और 'अनन्वागतं पण्येनानन्वागतं पापेन'* (बृह० ४। ३। २२) यह श्रुति भी ऐसा ही बतलाती है। छायया स्पृष्टमुष्णं वा शीतं वा सुष्ठु दुष्ठु वा। न स्पृशत्येव यत्किञ्चित्पुरुषं तद्विलक्षणम्॥५०५ ।। न साक्षिणं साक्ष्यधर्माः संस्पृशन्ति विलक्षणम्। अविकारमुदासीनं गृहधर्माः प्रदीपवत्॥५०६ ।। जैसे उष्ण-शीत, अच्छी-बुरी-कैसी ही वस्तु छायासे छू जानेपर भी उससे सर्वथा पृथक् पुरुषका तनिक भी स्पर्श नहीं कर सकती तथा घरको प्रकाशित करनेवाले दीपकपर जैसे घरके [सुन्दरता, मलिनता आदि] किसी धर्मका कोई प्रभाव नहीं होता वैसे ही शरीर आदि दृश्य पदार्थोंके धर्म उनसे विलक्षण उनके साक्षी आत्माको जो विकाररहित एवं उदासीन है, तनिक भी नहीं छू सकते। * यह आत्मा पुण्य (शास्त्रविहित कर्म) और पाप (शास्त्रनिषिद्ध कर्म)-से असम्बद्ध है। 133 विवेक-चूडामणि-50

Loading...

Page Navigation
1 ... 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153