Book Title: Vivek Chudamani
Author(s): Unknown
Publisher: Unknown

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Page 128
________________ बोधोपलब्धि आरोपितं नाश्रयदूषकं भवेत् कदापि मूढैर्मतिदोषदूषितैः। नार्दीकरोत्यूषरभूमिभागं मरीचिकावारिमहाप्रवाहः ॥४९९॥ बुद्धि-दोषसे दूषित अज्ञानियोंद्वारा आरोपित की हुई वस्तु अपने आश्रयको दूषित नहीं कर सकती; जैसे मृगतृष्णाका महान् जल-प्रवाह अपने आश्रय ऊषर भूमि-खण्डको [ तनिक भी ] गीला नहीं करता। आकाशवल्लेपविदूरगोऽह मादित्यवद्भास्यविलक्षणोऽहम् । अहार्यवन्नित्यविनिश्चलोऽह मम्भोधिवत्पारविवर्जितोऽहम् ॥५०॥ ___ मैं आकाशके समान निर्लेप हूँ, सूर्यके समान अप्रकाश्य हूँ, पर्वतके समान नित्य निश्चल हूँ और समुद्रके समान अपार हूँ। न मे देहेन सम्बन्धो मेनेव विहायसः।। अतः कुतो मे तद्धर्मा जाग्रत्स्वप्नसुषुप्तयः॥५०१॥ जैसे मेघसे आकाशका कोई सम्बन्ध नहीं है वैसे ही मेरा भी शरीरसे कोई सम्बन्ध नहीं है; तो फिर इस शरीरके धर्म जाग्रत् , स्वप्न और सुषुप्ति आदि मुझमें कैसे हो सकते हैं? उपाधिरायाति स एव गच्छति स एव कर्माणि करोति भुङ्क्ते। स एव जीर्यन्मियते सदाहं कुलाद्रिवन्निश्चल एव संस्थितः॥५०२॥ उपाधि ही आती है, वही जाती है तथा वही कर्मोंको करती और उनके फल भोगती है तथा वृद्धावस्थाके प्राप्त होनेपर वही मरती है। मैं तो कुल पर्वतके समान नित्य निश्चल-भावसे ही रहता हूँ। 133 विवेक-चडामणि-50

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