Book Title: Vivek Chudamani
Author(s): Unknown
Publisher: Unknown

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Page 131
________________ १३४ विवेक-चूडामणि घड़ेके धर्मोंसे जैसे आकाशका कोई सम्बन्ध नहीं होता वैसे ही यह जड देह जलमें अथवा स्थलमें कहीं भी लोटता रहे मैं इसके धर्मोंसे लिप्त नहीं हो सकता। कर्तृत्वभोक्तृत्वखलत्वमत्तता जडत्वबद्धत्वविमुक्ततादयः । बुद्धेर्विकल्पा न तु सन्ति वस्तुतः स्वस्मिन्परे ब्रह्मणि केवलेऽद्वये॥५११॥ कर्तापन, भोक्तापन, दुष्टता, उन्मत्तता, जडता, बन्धन और मोक्षये सब बुद्धिकी ही कल्पनाएँ हैं; ये प्रकृति आदिसे अतीत केवल अद्वितीय ब्रह्मस्वरूप स्वात्मामें वस्तुतः नहीं हैं। सन्तु विकाराः प्रकृतेर्दशधा शतधा सहस्रधा वापि। किं मेऽसंगचितेस्तैर्न घनः क्वचिदम्बरं स्पृशति॥५१२॥ प्रकृतिमें दसों, सैकड़ों और हजारों विकार क्यों न हों, उनसे मुझ असंग चेतन आत्माका क्या सम्बन्ध? मेघ कभी भी आकाशको नहीं छू सकता। अव्यक्तादिस्थूलपर्यन्तमेत द्विश्वं यत्राभासमात्रं प्रतीतम्। व्योमप्रख्यं सूक्ष्ममाद्यन्तहीनं ब्रह्माद्वैतं यत्तदेवाहमस्मि॥५१३॥ अव्यक्तसे लेकर स्थूलभूतपर्यन्त यह समस्त विश्व जिसमें आभासमात्र प्रतीत होता है तथा जो आकाशके समान सूक्ष्म और आदि-अन्तसे रहित अद्वैत ब्रह्म है, वही मैं हूँ। सर्वाधारं सर्ववस्तुप्रकाशं सर्वाकारं सर्वगं सर्वशून्यम्। नित्यं शुद्धं निश्चलं निर्विकल्पं ब्रह्माद्वैतं यत्तदेवाहमस्मि ॥५१४॥

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