Book Title: Vivek Chudamani
Author(s): Unknown
Publisher: Unknown

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Page 133
________________ विवेक-चूडामणि मैं मायासे प्रतीत होनेवाले जन्म, जरा और मृत्युके कारण अत्यन्त भयानक महास्वप्नमें भटकता हुआ दिन-दिन नाना प्रकारके तापोंसे सन्तप्त हो रहा था, हे गुरो ! अहंकाररूपी व्याघ्रसे अत्यन्त व्यथित मुझ दीनको निद्रासे जगाकर आपने मेरी बहुत बड़ी रक्षा की है। नमस्तस्मै सदेकस्मै कस्मैचिन्महसे नमः । राजते गुरुराज ते ॥ ५२० ॥ १३६ यदेतद्विश्वरूपेण हे गुरुराज ! आपके किसी उस महान् तेजको नमस्कार है, जो सत्स्वरूप और एक होकर भी विश्वरूपसे विराजमान है। उपदेशका उपसंहार नतमवलोक्य शिष्यवर्यं समधिगतात्मसुखं प्रबुद्धतत्त्वम् । इति प्रमुदितहृदयः स देशिकेन्द्रः पुनरिदमाह वचः परं महात्मा ॥ ५२१ ॥ इस प्रकार आत्मानन्द और तत्त्वबोधको प्राप्त हुए उस शिष्य श्रेष्ठको प्रणाम करते देख महात्मा गुरुदेव अति प्रसन्नचित्तसे फिर इस प्रकार श्रेष्ठ वचन कहने लगे । ब्रह्मप्रत्ययसन्ततिर्जगदतो ब्रह्मैव सत्सर्वतः पश्याध्यात्मदृशा प्रशान्तमनसा सर्वास्ववस्थास्वपि । रूपादन्यदवेक्षितुं किमभितश्चक्षुष्पतां विद्यते तद्वद्ब्रह्मविदः सतः किमपरं बुद्धेर्विहारास्पदम् ॥ ५२२ ॥ हे वत्स! अपनी आध्यात्मिक दृष्टिसे शान्तचित्त होकर सब अवस्थाओं में ऐसा ही देख कि यह संसार ब्रह्म-प्रतीतिका ही प्रवाह है, इसलिये यह सर्वथा सत्यस्वरूप ब्रह्म ही है। नेत्रयुक्त व्यक्तिको चारों ओर देखनेके लिये रूपके अतिरिक्त और क्या वस्तु है? उसी प्रकार ब्रह्मज्ञानीकी बुद्धिका विषय सत्यस्वरूप ब्रह्मसे अतिरिक्त और क्या हो सकता है ?

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