Book Title: Vivek Chudamani
Author(s): Unknown
Publisher: Unknown

View full book text
Previous | Next

Page 96
________________ समाधि-निरूपण सति सक्तो नरो याति सद्भावं ह्येकनिष्ठया। कीटको भ्रमरं ध्यायन्भ्रमरत्वाय कल्पते ॥ ३५९॥ एकाग्रचित्तसे निरन्तर सत्स्वरूप ब्रह्ममें स्थित रहनेसे मनुष्य ब्रह्मस्वरूप ही हो जाता है, जैसे भ्रमरका भयपूर्वक ध्यान करते-करते कीड़ा भ्रमरस्वरूप ही हो जाता है। क्रियान्तरासक्तिमपास्य कीटको ध्यायन्यथालिं ह्यलिभावमृच्छति। तथैव योगी परमात्मतत्त्वं ध्यात्वा समायाति तदेकनिष्ठया॥३६०॥ जिस प्रकार अन्य समस्त क्रियाओंकी आसक्तिको छोड़कर केवल भ्रमरका ही ध्यान करते-करते कीड़ा भ्रमररूप हो जाता है, उसी प्रकार योगी एकनिष्ठ होकर परमात्मतत्त्वका चिन्तन करते-करते परमात्मभावको ही प्राप्त हो जाता है। अतीव सूक्ष्म परमात्मतत्त्वं न स्थूलदृष्ट्या प्रतिपत्तुमर्हति। समाधिनात्यन्तसुसूक्ष्मवृत्त्या ज्ञातव्यमारतिशुद्धबुद्धिभिः ॥३६१॥ परमात्मतत्त्व अत्यन्त सूक्ष्म है, उसे स्थूल दृष्टिसे कोई भी प्राप्त नहीं कर सकता, इसलिये अति शुद्ध बुद्धिवाले सत्पुरुषोंको उसे समाधिद्वारा अति सूक्ष्मवृत्तिसे जानना चाहिये। यथा सुवर्णं पुटपाकशोधितं त्यक्त्वा मलं स्वात्मगुणं समृच्छति। तथा मनःसत्त्वरजस्तमोमलं ध्यानेन सन्त्यज्य समेति तत्त्वम् ।। ३६२॥ जिस प्रकार [ अग्निमें ] पुटपाक-विधिसे शोधा हुआ सोना सम्पूर्ण मलको त्यागकर अपने स्वाभाविक स्वरूपको प्राप्त कर लेता है, उसी 133 विवेक-चूडामणि-40

Loading...

Page Navigation
1 ... 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153