________________
१२४
विवेक-चूडामणि
जो न त्याज्य है, न ग्राह्य है और न किसीमें स्थित होने योग्य है तथा जिसका कोई अन्य आधार भी नहीं है, ऐसा एक अद्वितीय ब्रह्म ही सत्य है; उसमें नाना पदार्थ कोई नहीं है। निर्गुणं निष्कलं सूक्ष्मं निर्विकल्पं निरञ्जनम्। एकमेवाद्वयं ब्रह्म नेह नानास्ति किञ्चन ॥ ४६९॥
जो गुण और कलासे रहित है, सूक्ष्म, निर्विकल्प और निर्मल है, ऐसा एक अद्वितीय ब्रह्म ही सत्य है; उसमें नाना पदार्थ कुछ भी नहीं है।
अनिरूप्यस्वरूपं यन्मनोवाचामगोचरम्। एकमेवाद्वयं ब्रह्म नेह नानास्ति किञ्चन॥ ४७०॥
जिसका रूप वर्णन नहीं किया जा सकता तथा जो मन और वाणीका भी विषय नहीं है, ऐसा एक अद्वितीय ब्रह्म ही है; उसमें नाना वस्तु कोई भी नहीं है। सत्समृद्धं स्वतःसिद्धं शुद्धं बुद्धमनीदृशम्। एकमेवाद्वयं ब्रह्म नेह नानास्ति किञ्चन॥ ४७१॥
जो सत्य, वैभवपूर्ण, स्वत:सिद्ध, शुद्ध, बोधस्वरूप और उपमारहित है ऐसा एक अद्वितीय ब्रह्म ही सत्य है; उसमें नाना पदार्थ कुछ भी नहीं है।
__आत्मानुभवका उपदेश निरस्तरागा निरपास्तभोगा:
शान्ताः सुदान्ता यतयो महान्तः। विज्ञाय तत्त्वं परमेतदन्ते
. प्राप्ताः परां निर्वृतिमात्मयोगात्॥ ४७२। जिनका किसी भी वस्तुमें राग नहीं है और भोगका भी सर्वथा अन्त हो गया है तथा जिनका चित्त शान्त एवं इन्द्रियाँ संयत हैं, वे महात्मा संन्यासीजन ही इस परम तत्त्वको जानकर अन्तमें इस अध्यात्मयोगके द्वारा परम शान्तिको प्राप्त हुए हैं।