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प्रारब्ध-विचार
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प्रवृत्ति रह सकती है, तो ऐसी बात नहीं है क्योंकि ब्रह्मके एकत्वज्ञानसे [ विषयका बाध हो जानेके कारण ] इसकी वासना मन्द हो जाती है।
अत्यन्तकामुकस्यापि वृत्तिः कुण्ठति मातरि। तथैव ब्रह्मणि ज्ञाते पूर्णानन्दे मनीषिणः॥ ४४५॥
जिस प्रकार अत्यन्त कामी पुरुषकी भी कामवृत्ति माताको देखकर कुण्ठित हो जाती है, उसी प्रकार पूर्णानन्दस्वरूप ब्रह्मको जान लेनेपर विद्वान्की संसारमें प्रवृत्ति नहीं होती।
प्रारब्ध-विचार निदिध्यासनशीलस्य बाह्यप्रत्यय ईक्ष्यते। ब्रवीति श्रुतिरेतस्य प्रारब्धं फलदर्शनात्॥४४६॥
निदिध्यासनशील (आत्मचिन्तनमें लगे हुए) पुरुषको बाह्य पदार्थोंकी प्रतीति होती देखी जाती है, फल-भोग देखा जानेके कारण श्रुति उसे उसका प्रारब्ध बतलाती है।
सुखाद्यनुभवो यावत्तावत्प्रारब्धमिष्यते। फलोदयः क्रियापूर्वो निष्क्रियो न हि कुत्रचित्॥४४७॥
[ युक्तिसे भी ] जबतक सुख-दुःख आदिका अनुभव है तबतक प्रारब्ध माना जाता है, क्योंकि फलका भोग क्रियापूर्वक होता है, बिना कर्मके कहीं नहीं होता।
अहं ब्रह्मेति विज्ञानात्कल्पकोटिशतार्जितम्। सञ्चितं विलयं याति प्रबोधात्स्वप्नकर्मवत्॥ ४४८ ॥
जग जानेपर जैसे स्वप्नावस्थाके कर्म लीन हो जाते हैं वैसे ही मैं ब्रह्म हूँ' ऐसा ज्ञान होते ही करोड़ों कल्पोंके संचित कर्म नष्ट हो जाते हैं। यत्कृतं स्वप्नवेलायां पुण्यं वा पापमुल्बणम्। सुप्तोत्थितस्य किं तत्स्यात्स्वर्गाय नरकाय वा॥४४९ ॥
स्वप्नावस्थामें जो बड़े-से-बड़ा पुण्य अथवा पाप किया जाता है, क्या जग पड़नेपर वह स्वर्ग अथवा नरककी प्राप्तिका कारण हो सकता है?