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विवेक-चूडामणि
देहेन्द्रियेष्वहंभाव इदंभावस्तदन्यके। यस्य नो भवतः क्वापि स जीवन्मुक्त इष्यते॥४३९ ॥
जिसका देह और इन्द्रिय आदिमें अहंभाव तथा अन्य वस्तुओंमें इदं (यह) भाव कभी नहीं होता, वह पुरुष जीवन्मुक्त माना जाता है। न प्रत्यग्ब्रह्मणोर्भेदं कदापि ब्रह्मसर्गयोः । प्रज्ञया यो विजानाति स जीवन्मुक्त इष्यते॥४४०॥
जो अपनी तत्त्वावगाहिनी बुद्धिसे आत्मा और ब्रह्म तथा ब्रह्म और संसारमें कोई भेद नहीं देखता, वह पुरुष जीवन्मुक्त माना जाता है।
साधुभिः पूज्यमानेऽस्मिन्पीड्यमानेऽपि दुर्जनैः। समभावो भवेद्यस्य स जीवन्मुक्त इष्यते॥ ४४१ ।।
साधु पुरुषोंद्वारा इस शरीरके सत्कार किये जानेपर और दुष्टजनोंसे पीड़ित होनेपर भी जिसके चित्तका समानभाव रहता है, वह मनुष्य जीवन्मुक्त माना जाता है। यत्र प्रविष्टा विषयाः परेरिता
नदीप्रवाहा इव वारिराशौ। लिनन्ति सन्मात्रतया न विक्रिया
मुत्पादयन्त्येष यतिर्विमुक्तः॥४४२॥ समुद्रमें मिल जानेपर जैसे नदीका प्रवाह समुद्ररूप हो जाता है वैसे ही दूसरोंके द्वारा प्रस्तुत किये विषय आत्मस्वरूप प्रतीत होनेसे जिसके चित्तमें किसी प्रकारका क्षोभ उत्पन्न नहीं करते वह यतिश्रेष्ठ जीवन्मुक्त है। विज्ञातब्रह्मतत्त्वस्य यथापूर्वं न संसृतिः। अस्ति चेन्न स विज्ञातब्रह्मभावो बहिर्मुखः॥ ४४३॥ ब्रह्मतत्त्वके जान लेनेपर विद्वान्को पूर्ववत् संसारकी आस्था नहीं रहती और यदि फिर भी संसारकी आस्था बनी रही तो समझना चाहिये कि वह तो संसारी ही है उसे ब्रह्मतत्त्वका ज्ञान ही नहीं हुआ। प्राचीनवासनावेगादसौ संसरतीति चेत्। न सदेकत्वविज्ञानान्मन्दीभवति वासना॥४४४॥ यदि कहो कि पूर्ववासनाकी प्रबलतासे फिर भी इसकी संसारमें