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समाहितान्तःकरण:
विच्छिन्धि बन्धं भवगन्धगन्धितं
स्वरूपे विलोकयात्मानमखण्डवैभवम् ।
यत्नेन पुंस्त्वं सफलीकुरुष्व ॥ ४१२ ॥
अपने स्वरूपमें चित्तको स्थिर करके अखण्ड ऐश्वर्य सम्पन्न आत्माका साक्षात्कार करो, संसार- गन्धसे युक्त बन्धनको काट डालो और यत्नपूर्वक अपने मनुष्य जन्मको सफल करो । सर्वोपाधिविनिर्मुक्तं
सच्चिदानन्दमद्वयम् ।
भावयात्मानमात्मस्थं न भूयः कल्पसेऽध्वने ॥ ४१३ ॥ समस्त उपाधियोंसे रहित अद्वितीय सच्चिदानन्दस्वरूप अपने अन्तःकरणमें स्थित आत्माका चिन्तन करते रहो इससे तुम फिर संसार-चक्रमें नहीं पड़ोगे ।
दृश्यकी उपेक्षा छायेव पुंसः परिदृश्यमान
माभासरूपेण
विवेक-चूडामणि
शरीरमाराच्छ्ववन्निरस्तं
फलानुभूत्या ।
पुनर्न सन्धत्त इदं महात्मा ॥ ४१४ ॥
मनुष्यकी छायाके समान केवल आभासरूपसे दिखलायी देनेवाले, इस शरीरका, इसके फलका विचार करके, शवके समान एक बार बाध कर देनेपर महात्मगण इसे फिर स्वीकार नहीं करते।
सततविमलबोधानन्दरूपं
समेत्य त्यज जडमलरूपोपाधिमेतं सुदूरे।
अथ पुनरपि नैष स्मर्यतां वान्तवस्तु
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स्मरणविषयभूतं कल्पते कुत्सनाय ।। ४१५ ॥
अपने नित्य और निर्मल चिदानन्दमय स्वरूपको प्राप्त करके इस मलरूप जड उपाधिको दूरहीसे सर्वथा त्याग दो और फिर कभी इसकी