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जीवन्मुक्तके लक्षण
जानने या न जाननेवालोंमें देखे गये हैं। नहीं तो [ यदि मूढ पुरुषके समान विद्वान्को भी असत् पदार्थों में प्रवृत्ति बनी रही तो ] विद्याका प्रत्यक्ष फल ही क्या हुआ? अज्ञानहृदयग्रन्थेर्विनाशो यद्यशेषतः। अनिच्छोर्विषयः किन्नु प्रवृत्तेः कारणं स्वतः॥४२४॥
यदि अज्ञानरूप हृदयकी ग्रन्थिका सर्वथा नाश हो जाय तो उस इच्छारहित पुरुषके लिये सांसारिक विषय क्या स्वतः ही प्रवृत्तिके कारण हो जायँगे? वासनानुदयो भोग्ये वैराग्यस्य परोऽवधिः। अहंभावोदयाभावो बोधस्य परमोऽवधिः। लीनवृत्तेरनुत्पत्तिर्मर्यादोपरतेस्तु सा॥ ४२५॥
भोग्य वस्तुओंमें वासनाका उदय न होना वैराग्यकी चरम अवधि है, चित्तमें अहंकारका सर्वथा उदय न होना ही बोधकी चरम सीमा है और लीन हुई वृत्तियोंका पुन: उत्पन्न न होना-यह उपरामताकी सीमा है।
जीवन्मुक्तके लक्षण ब्रह्मकारतया सदा स्थिततया निर्मुक्तबाह्यार्थधीरन्यावेदितभोग्यभोगकलनो निद्रालुवद्वालवत्। स्वप्नालोकितलोकवज्जगदिदं पश्यन्क्वचिल्लब्धधीरास्ते कश्चिदनन्तपुण्यफलभुग्धन्यः समान्यो भुवि॥४२६॥
निरन्तर ब्रह्माकार-वृत्तिसे स्थित रहनेके कारण जिसकी बुद्धि बाह्य विषयोंमेंसे निकल गयी है और जो निद्रालु अथवा बालकके समान, दूसरोंके निवेदन किये हुए ही भोग्य पदार्थोंका सेवन करता है तथा कभी विषयोंमें बुद्धि जानेपर जो इस संसारको स्वप्न-प्रपंचके समान देखता है, वह अनन्त पुण्योंके फलका भोगनेवाला कोई ज्ञानी महापुरुष इस पृथिवीतलमें धन्य है और सबका माननीय है। स्थितप्रज्ञो यतिरयं यः सदानन्दमश्नुते। ब्रह्मण्येव विलीनात्मा निर्विकारो विनिष्क्रियः ॥ ४२७॥
जो यति परब्रह्ममें चित्तको लीनकर विकार और क्रियाका त्याग करके सदा आनन्दस्वरूप ब्रह्ममें मग्न रहता है, वह स्थितप्रज्ञ कहलाता है।