Book Title: Vicharsar Prakaranam Cha
Author(s): Pradyumnasuri, Manikyasagar
Publisher: Agamoday Samiti

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Page 15
________________ सहियत्यं स पसत्या इह भावोवकमोऽहिगओ ।। (९२९) गुरुचित्तायत्ताई वक्खाणंगाई जेण सबाई। तो जेण सुप्पसन्नं होइ तयं तं तहा कर्ज ॥ ( ९३१) आगारिंगियकुसलं जइ सेयं वायसं वए पुज्जा। तहवि य सिं न विकूडे विरहम्मि य कारणं पुच्छे ॥ ९३३ ॥ एगादेगुत्तरया छगच्छगया परोप्परब्भत्था । पुरिमंतिमदुगहीणा परिमाणमणाणुपूवीणं ॥ (९४२) पुवाणु विहेट्ठा समयाभेएण कुण जहाजे । ज्वरिमतुल्ले पुरओ नसेज्ज पुवकमो सेसो ॥ (९४३) जं वत्थुणोऽभिहाणं पज्जयभेयाणुसारि तं नाम । पइभेयं जं नमए पइभेयं जाइ जं भणियं ॥ (९४४) मिच्छत्तमयसमूह सम्मत्तं जं च तदुवगारम्मि । वट्टइ परसिद्धंतो तो तस्स तओ ससिद्धंतो ॥ ९५४) “ उद्देसे निइसे य निग्गमे खेत्त काल पुरिसे य । कारण पञ्चय लक्खण नए समोयारणाणुमए ॥ (९७३ नि.) कि कइविहं कस्स कहिं केसु कह केचिरं हवइ कालं । कइ संतरमविरहियं भवा-गरिस-फोसण-निरुत्ती॥” (९१४ नि.) अप्परगंथ-महत्यं बत्तीसादोसविरहियं जं च । लक्खणजुत्तं सुत्तं अट्ठहि य गुणेहि उववेयं ॥ (९९९) मुत्तं पयं पयत्थो संभवओ घिग्गहो वियारो य । दूसियसिद्धी नयमयविसेसओ नेयमणुसुत्तं ॥ (१००२) पयमत्यवायगं जोयगं च तं नामियाइ पञ्चविहं । कारग-समास-तद्धिय-निरुत्तवचो वि य पयत्थो । (१००३)

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