Book Title: Uttaradhyayan Sutram Part 04
Author(s): Sudharmaswami, Lakshmivallabh Gani
Publisher: Shravak Hiralal Hansraj

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Page 11
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir JEL BEI उचराध्ययन सूत्रम् ||८६८॥ भाषांतर अध्य०१५ ॥८६ जानकाowomसीकसार जेण पुण जहाइ जीवियं मोहं वा कसिणं निअच्छइ ।। नरनारि पजहे सया तवस्सी।न य कोऊहलं उवसेवई स भिक्खू॥ (पुण) वळी [जेण] जेनाथी [जीविअं] संयमनो (जहाइ) त्याग थयो होय (वा) अथवा जेनाथी कसिणं समन [मोहं] मोहनीय कर्मनो | [निअच्छइ] बंध थाय तेम होय (तवस्वी) तपस्वी मुनि (पजहे) त्याग करे (य) जे साधु (कोऊहलं) कौतुकने(नउपसेवइ)न पामे [सभिक्खू] व्या०-यः पुनस्तं हेतुं जहाति तं कं? येन हेतुना येन कृतेन जीवितं संयमजीवितव्यं जहाति. पुनयन कृत्वा मोहं वा मोहनीयकर्म कषायनोकषायरूपं कृत्स्नं संपूर्ण नियच्छति बनाति. तादृशं नरं नारी स्त्री सदा सर्वदा प्रजह्यात्, कोऽर्थः? येन पुरुषस्त्र्यादिना कृत्वा संयमं याति, येन कृत्वा मोहकर्मोदयः स्यात् , तंप्रति यस्त्यजेत् स भिक्षुरित्यर्थः. पुनर्यस्तपस्वी तपोनिरतः, पुनर्यः कौतूहलं स्यादिविषयं, अथवा नाटकेंद्रजालादिकौतुकंन चोपसेवते, स भिक्षुरित्युच्यते. जे साधु ते हेतुने त्यजी दीये के जे करवायी जीवित संयम जीवित वजाय, तेमज ये करवाथी मोह-कषाय नोकपायरूप समग्र मोहनीय कर्मबंधन करे, तेवां नर तथा नारी-बीने सदा सर्वदा प्रकर्षे करी वजी दीये. शुं का ? जे स्त्री पुरुषादिकने लीधे संयम जाय अथवा जेना करवाथी मोहनीय कर्मोनो उदय थाय तेवांने जे त्यजे ते भिक्षु. वळी जे तपस्वी तपः परायण कौतूहल= स्त्रीआदिक विषय अथवा नाटक इंद्रजालादिक कौतुक जोवानी उत्सुकता तेने न उपसेवे, ढुकडो न जाय ते भिक्षुक कहे वाय. ६ छिन्नं सरं भोममंतरिक्खं । सुविणं लक्खणदंडवत्थुविजं ॥ अंगवियारं सरस्स विजयं । जो विजाहिं न जीवई स भिक्ख [जो] जे साधु [विजाहि] आ विद्याओवडे [न जीवह] आजीविका न करे [स भिक्खू ते भिक्षुक [छिन] छिन्न विद्या [सरं] स्वर विद्या [भोम] भौम विद्या (अंतकिक्ख) आंतरिक्ष विद्या [सुविण] स्वप्नविद्या [लक्खण] लक्षणविद्या दिंडदंडविद्या [चत्यु For Private and Personal Use Only

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