Book Title: Uttaradhyayan Sutra Mul Path
Author(s): Purushudaniya Parshwanath SMP Jain Sangh
Publisher: Purushudaniya Parshwanath SMP Jain Sangh
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उत्ताध्ययनसूत्रम् (अध्ययन २९) १२३ सु० अणुस्सुयत्तं जणयइ, अणुस्सुयाए णं जीवे अणुकंपए अणुब्भडे विगयसेोगे चरित्तोहणिज्ज कम खवेइ ॥ २९॥ अप्पडिबद्धयाए णं भते जीवे किं जणयइ ? अ० निस्संगत्त जणयई ? निस्सगत्तेणं जीवे एगे एगग्गचित्ते दिया य राओ य असज्जमाणे अपडिबद्धे यावि विहरइ ॥३०॥ विवित्तसयणासणयाए णं भते जीवे किं जणयइ ? वि० चरित्तगुत्तिं जणयइ, चरित्तगुत्ते य णं जीवे विवित्ताहारे दढचरित्ते एग तरए मोक्खभावपडिवन्ने-अट्टविहकम्मगंठिं निज्जरेइ ॥ ३१ ॥ विनियट्टयाए णं भते जीवे किं जणयइ ? वि० पावकम्माणं अकरणयाए अब्भुटेइ, पुव्वबद्धाण य निज्जरणयाए त नियत्तेइ, तओ पच्छा चाउरतं संसारकतार वीइवयइ ।। ३२ ।। संभोगपञ्चक्खाणेणं भते जोवे किं जणयइ ? सं० आलबणाई खवेइ. निरालबणस्स य आयतट्ठिया योगा भवंति । सएणं लाभेणं संतुस्सइ, परलाभ ना आसादेइ, परलाभ ना तक्केइ, ना पीहेइ, नॉ पत्थेइ, नो अभिलसई, परलाभ अणस्सायमाणे अतक्केमाणे अपीहमाणे अपत्थेमाणे अणभिलस्समाणे दुच्च सुहसेज्ज उवसंपज्जित्ता ण विहरइ ।। ३३ ॥ उवहिपञ्चक्खाणेण भते जीवे किं जणयइ ?
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