Book Title: Uttaradhyayan Sutra Mul Path
Author(s): Purushudaniya Parshwanath SMP Jain Sangh
Publisher: Purushudaniya Parshwanath SMP Jain Sangh
View full book text ________________
१५८ उत्तराध्ययनसूत्रम् (अध्ययन ३६) अञ्चण रयण चेव, वंदण पूयण तहा । इड्ढीसक्कारसम्माण, मणसा वि न पत्थए ।॥ १८ ॥ सुकन्झाण झियाएज्जा, अणियाणे अकिंचणे । वोसटुकाए विहरेज्जा, जाव कालस्स पज्जओ ॥ १९ ॥ निज्जुहिऊण आहार', कालघम्मे उवट्टिए । जहिऊण माणुस बांदि, पहू दुक्खे पमुच्चई ॥ २० ॥ निम्ममे निरहंकारे, वीयरागो अणासवो । संपत्तो केवलं नाण, सासयं परिणिव्वुए ॥ २१ ॥ त्ति बेमि ॥ इति अणगारज्झयण णाम पंचतीसइमं अज्झयण समत्तं ॥ ३५ ॥
॥ अह जीवाजीवविभत्ती गाम छत्तीसइम अज्झयण ॥
जीवाजीवविभत्ति, सुणेह मे एगमणा इओ । ज जाणिऊण भिक्खू , सम्म जयइ संजमे ॥१॥ जीवा चेव अजीवा य, एस लाए वियाहिए । अजीवदेसमागासे, अलोगे से वियाहिए ॥२॥ दव्वओ खेत्तओ चेत्र, कालओ भावओ तहा । परूवणा तेसि भवे, जीवाणमजीवाण य ॥३॥ रूविणो चेवरुखी य, अजीवा दुविहा भवे । अरूवी दसहा वुत्ता, रूविणो य चउब्विहा ॥४॥
Loading... Page Navigation 1 ... 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200