Book Title: Tulsi Prajna 2000 10 Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya Publisher: Jain Vishva Bharati View full book textPage 8
________________ के और कोई उपलब्ध नहीं कर सकता। सत्यान्वेषी जब सत्य के प्रति पूर्ण समर्पित हो जाता है तब उसमें सम्पूर्ण सृष्टि के प्रति मैत्री, सह-अस्तित्व, आत्मतुला का भाव सहज जाग जाता है। फिर वह कोई ऐसी गलत सोच, कर्म, संकल्प नहीं कर सकता जो औरों के हितों को हानि पहुंचा सके। जैनधर्म की आचार-संहिता का एक सूत्र है-'पढ़मं नाणं तओ दया' पहले जानो, फिर आचरण करो। ज्ञानशून्य क्रिया और क्रियाशून्य ज्ञान दोनों ही जीवन की अपूर्ण व्याख्या है। ज्ञान के अभाव में हेय और आदेय का निर्णय नहीं होता और बिना आचरण के सही ज्ञान परिणाम तक नहीं पहुंच सकता। अतः विकास की दिशा में ज्ञान और चारित्र दोनों की समन्विति आवश्यक बतलाई। __ जैनधर्म में जागरण का संदेश दिया गया - 'खणं जाणाहि पंडिए' क्षणजीवी बनो। अज्ञान और प्रमाद से मुक्त बनो। अतीत की स्मृतियों और भविष्य की कल्पनाओं से बाहर आओ, क्योंकि बिना वर्तमान में जीए कोई बड़ा आदमी नहीं बन सकता। भगवान महावीर भी महावीर तब बन पाए थे जब उन्होंने क्षण-क्षण को अप्रमत्त बनकर जागरूकता के साथ जीया। और इसीलिए जीवन भर उनका जागृतिभरा संदेश मिलता रहा-'समय गोयम !मा पमाइय' क्षणभर का भी प्रमाद मत करो। महावीर ने कभी नहीं कहा कि तुम मेरी शरण में आ जाओ, मैं तुम्हें मुक्ति दूंगा। उन्होंने धर्म का मर्म समझाया-तुम मेरी शरण में नहीं, अपनी शरण में जाओ। तुम मुझे बाहर मत ढूंढो अन्यथा अनन्त जन्म भी कम पड़ जाएंगे। भीतर ढूंढ़ों-भीतर में तुम स्वयं स्वयं को पाओगे। जैनधर्म में किसी को छोटा बड़ा नहीं माना गया। ‘एक्का माणुस्स जाई, कहकर सबके अस्तित्व को समान स्वीकृति दी गई । यहां सबका सुख-दुःख समान माना गया। सबके हितों, अधिकारों और सुखों की सुरक्षा की गई। ‘एक के लिए सब और सब के लिए एक' की समूह चेतना के विकास का प्रावधान बना । जैनधर्म इस तथ्य को स्वीकार करता है कि निश्चय जगत में 'एकला चलो रे' का चिन्तन सत्य है मगर व्यवहार की भूमिका पर जहां आपसी सम्बन्ध है, सम्पर्क है, संवाद है, आदान-प्रदान की परम्परा है, विचार संप्रेषण है, सहयोग, संगठन, एकता, समन्वय है वहां धर्म के परिप्रेक्ष्य में सापेक्षता का चिन्तन भी सार्थक है। इसीलिए महावीर ने कहा-परस्परोपग्रहो जीवानाम्-जीवों का परस्पर उपग्रह-सहयोग होता है। दृश्य जगत में एक के बिना दूसरे का कोई मूल्य नहीं। इसलिए सामुदायिक चेतना का विकास और धर्म के शाश्वत मूल्यों का आचरण एक ही सूत्र की दो व्याख्या है। महावीर ने जीवन का सम्पूर्ण दर्शन दिया। हमें ऐसा दर्पण हाथ में दिया कि हम स्वयं दर्पण में अपना बिम्ब देख सकें। मगर यह हमारा अज्ञान और प्रमाद है कि हम अभी तक उन सत्यों को न समझ पाए और न जी पाए । इसलिए हमारे चारों ओर समस्याएं घिर आईं, जबकि अध्यात्म की दिशा में एक ऐसा महत्त्वपूर्ण सूत्र दिया गया जो निषेधात्मक 2 500 तलसी प्रज्ञा अंक 110 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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