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दिया गया तो एक स्पष्ट प्रत्यक्ष दर्शन हो गया जिसका महावीर वाणी में उल्लेख मिलता है कि परिग्रह के लिए ही मनुष्य प्राणियों का वध करता है।
आचारांग सूत्र में जहां अहिंसा का चिन्तन शुरू हुआ है वहां एक-एक अवयव के लिए मनुष्य हिंसा करता है। सींग के लिए हिंसा करता है, चमड़े के लिए हिंसा करता है, दांत के लिए हिंसा करता है, वसा के लिए हिंसा करता है। सारे प्रयोजन बतलाये कि हिंसा के प्रयोजन क्या है ? हिंसा के प्रयोजन की चिन्ता में जो सबसे बड़ा तत्व सामने उभर कर आता है वह है परिग्रह | परिग्रह हिंसा का मूल कारण है। अगर हम परिग्रह पर विचार न करें तो अहिंसा पर कोई विचार पूरा हो नहीं सकता, बात अधूरी रहेगी। मानना चाहिए कि हिंसा का कारण छिपा हुआ है और हिंसा हमारे सामने आती है। अहिंसा का कारण भी छिपा हुआ है और अहिंसा हमारे सामने आती है। इसीलिए अहिंसा को पहला स्थान मिला, क्योंकि प्रयोग में ज्यादा दर्शन हमें उसका होता है । किन्तु वास्तव में हिंसा से ज्यादा जटिल समस्या है परिग्रह की ।
अहिंसा से भी ज्यादा मूल्य है अपरिग्रह का । परिग्रह का प्रारम्भ बिन्दु है शरीर का मोह । मनुष्य जीना चाहता है और शरीर को सुरक्षित रखना चाहता है। स्थानांग सूत्र में परिग्रह तीन प्रकार बतलाये हैं, उनमें पहला प्रकार है - शरीर । परिग्रह का मूल आधार है शरीर । दूसरा कारण और प्रकार है - कर्म संस्कार । जो संस्कार हमने अर्जित कर रखें हैं, वे संस्कार ही मनुष्य को परिग्रही बनने के लिए प्रेरित करते हैं । हिंसा के लिए प्रेरित करते हैं। तीसरा प्रकार है परिग्रह का । जब अपरिग्रह पर विचार किया गया तो पहला सिद्धान्त निश्चित हुआ ममत्व - चेतना का परिष्कार। हमारी जो ममत्व की चेतना है उसका परिष्कार होना चाहिए। आचारांग सूत्र का बहुत स्पष्ट एक निर्देश है कि ममत्व का त्याग वह कर सकता है जो म की बुद्धि का परित्याग करता है । ममत्व की चेतना का परिष्कार करता है वह ममत्व का परित्याग कर सकता है। चेतना का रूपान्तरण नहीं होता तब तक परिग्रह की तरफ होने वाली मूर्च्छा कम नहीं हो सकती ।
मनोविज्ञान का एक बहुत सुन्दर सूत्र मिलता है जो ममत्व चेतना का समर्थन करने वाला है। मानसशास्त्र में अनेक मनोवृत्तियां मानी गईं, आखिर मानसशास्त्री एक निष्कर्ष पर पहुंचे कि एक मनोवृत्ति में सबका समावेश हो सकता है और वह है अधिकार की भावना । हर प्राणी में अधिकार की मनोवृत्ति है । हर व्यक्ति एक दूसरे पर अधिकार जमाना चाहता है और पदार्थ पर भी अपना अधिकार स्थापित करना चाहता है । अहिंसा की व्याख्या में जो आचारांग सूत्र का निर्देश मिलता है वह इसी ओर इंगित करता है कि किसी पर हुकूमत मत
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