________________
मनुष्य का सर्वांगीण विकास भी पुरुषार्थ पर ही आधारित है। डॉ. जयशंकर मिश्र के अनुसार भौतिक एवं आध्यात्मिक समृद्धि के मध्य का संतुलित दृष्टिकोण ही पुरुषार्थ का सही स्वरूप है। दुख-परित्याग एवं सुख-प्राप्ति की अभिलाषा मानव मन में व्याप्त है। इसी कारण शरीर एवं मानसिक क्रियाओं में उसकी प्रवृत्ति होती है। आचार्य श्री तुलसी की दृष्टि में सर्वोच्च शिखर पर पहुंचने का साधन पुरुषार्थ है। इन्हीं के शब्दों में तलहटी से शिखर तक जाने का उपाय है-पुरुषार्थ जो व्यक्ति पुरुषार्थ को अपने जीवन का अभिन्न अंग बना लेते हैं, उनके लिए मंजिल रास्ता बन जाता है, सफलता उनके द्वार पर दस्तक देती है। पुरुषार्थ के द्वारा व्यक्ति जीवन में हारी बाजी को भी विजय में बदल लेता है।
पाप एवं कालुष्य मल से दबी चेतना को परिष्कृत करने का श्रेष्ठ साधन है पुरुषार्थ । पाप और कालुष्य से दबी चेतना को स्वयं व्यक्ति का पुरुषार्थ ही उबार सकता है।' अथक पुरुषार्थ के द्वारा विजातीय तत्वों से लोहा लेने वाला व्यक्ति धर्म को जीवंत बना सकता है। गर्हित संस्कार नष्ट होते हैं तथा आत्मा परमात्मा बन जाती है। पुरुषार्थ का मन्त्र जिसने पा लिया समझो कि वह देश और समाज में खुशहाली अवश्य ला देता है। पुरुषार्थ वह मानवीय गुण है, जो देवों को भी पराभूत कर सकता है, इसलिए पुरुषार्थ को जीवन का सर्वोत्कृष्ट श्रेयपथ कहा गया है।
वैदिक वाङ्गमय में पुरुषार्थ - वैदिक ऋषि न केवल सर्वथा परित्याग को महत्व देता है, न केवल भोगवादी प्रवृत्ति को। बल्कि त्याग और भोग के मंजुल सामंजस्य का नाम है-वैदिक संस्कृति। ईशावास्योपनिषद् का प्रथम मंत्र वैदिककालीन पुरुषार्थ को स्पष्ट कर देता है। तेन त्यक्तेन भुंजीथाः। दार्शनिक दुःखवाद वैदिक आर्यों के समय में अस्तित्व में नहीं आया था। वहां भौतिक-सम्पन्नता के बीच से आध्यात्मिक समृद्धि को प्राप्त कर लेना पुरुषार्थ माना गया है। ऋग्वेद के प्रथम सूक्त में ही भौतिक अभ्युदय की कामना की गयी है। त्यागपूर्वक भोग के साथ सत्य की प्राप्ति वैदिक ऋषियों की दृष्टि में प्रत्येक पुरुष का इष्ट प्रयोजन था। ईशावास्योपनिषद् के अन्तिम मन्त्र में ऋषि 'सत्यधर्म' के साक्षात् दर्शन के लिए कामना करता है
हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम्।
तत्वं पुषन्नपावृणु सत्यधर्माय दृष्टये ।। 15 वैदिक काल में दो शब्द ऋता और सत्य" अत्यन्त प्रिय थे। ऋत और सत्य को पूर्ण निष्ठा और श्रद्धा पूर्वक आत्मार्पित करना ही परम पुरुषार्थ है। भौतिक सिद्धि एवं आध्यात्मिक उन्नति-आत्मोपलब्धि के लिए ऋत और सत्य को श्रद्धापूर्वक जीवन के स्थूल और सूक्ष्म प्रत्येक स्पन्दन में प्रतिष्ठित करना वैदिक आर्यों की दृष्टि में पुरुषार्थ था। तुलसी प्रज्ञा अप्रेल-सितम्बर, 2000 NITINITIMINITI N 71
हिरण
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org