Book Title: Tulsi Prajna 2000 04
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 85
________________ तक भोग-परिभोग का संयमन करता है। इसलिए ऐसे श्रावकों को भगवान महावीर ने व्रताव्रती, धर्माधर्मी और संयमासंयमी कहा है। व्रती श्रावक की पहली पहचान है-सम्यग् दर्शन यानी सत्य के प्रति यथार्थ दृष्टिकोण का निर्माण। आत्म-विकास के आरोहण में पहला पायदान है सम्यग् दर्शन। बिना सम्यग् दर्शन के ज्ञान भी मिथ्या हो जाता है। श्रावक संबोध कहता है कि सम्यग् दर्शन के साथ निम्न उपलब्धियां आवश्यक हैं : सम्यग्दर्शन हो श्रावक में, त्रैकालिक आत्मा में आस्था। आराध्यदेव अरहंत सदा, सद्गुरु आध्यात्मिक अनुशास्ता। अर्हद्भाषित सद्धर्म-अहिंसा, संयम तप का आराधन। हो लक्ष्य मोक्ष परमात्म पदं, पुरुषार्थ स्वयं का संसाधन ॥ १/१८॥ सम्यग्दर्शी श्रावक सत्यान्वेषी होता है। उसका चिन्तन सदा विधायक रहता है। वह श्रद्धाशील, विश्वासपात्र और जीवन जागृति के लिए प्रयोगधर्मा होता है। प्रश्न होता है कि हम पहचान कैसे करें कि श्रावक सम्यग्दर्शी है या नहीं? इसके लिए श्रावक संबोध पांच मानक प्रस्तुत करता है - शम-हो कषाय का सहज शमन, संवेग-मुमुक्षावृत्ति सबल। निर्वेद-बढ़े भव से विराग, अनुकम्पा-करुणा-भाव अमल। आस्तिक्य-कर्म आत्मादिक में, जन्मान्तर में विश्वास प्रबल। ये लक्षण सम्यग् दर्शन के, जीवन यात्रा में हैं संबल ॥१९॥ श्रावक संबोध श्रावक का आचार शास्त्र है। आचारांग सूत्र में आचार संहिता का आधार आत्मा को माना है। आत्मा का ज्ञान करो पर आत्मा अमूर्त है, अदृष्ट है, इन्द्रियों से ज्ञेय नहीं। इसलिए जब तक वह अवबोध न हो जाए कि मैं कौन हूं और कहां जाऊंगा? तब तक यह प्रयास करो। प्रश्न उठता है कि श्रावक संबोध जब आचारपरक कृति है तो इसमें जीव, आत्मा, परमात्मा, पुनर्जन्म, नवतत्व, षड्जीवनिकाय, पंचास्तिकाय, अनेकान्त, सप्तभंगी जैसे गूढ तत्वों की चर्चा क्यों? समाधान की भाषा में कहा जा सकता है कि 'श्रावक जीवन की सार्थकता, नव तत्वों के अनुशीलन से' ॥ १/२१ ॥ दर्शन और आचार एक ही सिक्के के दो पहलू हैं । ज्ञानशून्य आचार का कोई मूल्य नहीं और आचारशून्य ज्ञान की कोई उपयोगिता नहीं। दसवैकालिक सूत्र में कहा गया है: तुलसी प्रज्ञा अप्रेल-सितम्बर, 2000 STIRINITIONITIN 79 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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