Book Title: Tulsi Prajna 2000 04
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 90
________________ फिर भी पदार्थ ज्यों-के त्यों बने रहते हैं । इसी प्रकार चित्राबेला के सम्पर्क से पदार्थ अखूट हो जाता है। स्वस्थ समाज संरचना का यह सुन्दर प्रारूप है। श्रावक परिवार, समाज, देश से जुड़ा है, अतः हर क्षेत्र में उसका दायित्व मूल्य रखता है। इसलिए वह अपने जीवन में जहां अर्थ और काम का संतुलन रखता है वहीं धर्म और मोक्ष के आध्यात्मिक उद्देश्यों के प्रति जागरूक भी रहता है। चार पुरुषार्थों के बीच सामंजस्य रखने वाला ही सही अर्थों में श्रावक हो सकता है। श्रावक संबोध में धर्म की दो दृष्टियां प्रतिपादित की हैं-लौकिक एवं लोकोत्तर। लौकिक दृष्टि से अर्थ और काम से श्रावक जुड़ा है। लोकोत्तर दृष्टि से धर्म और मोक्ष से जुड़ा है। सम्यक् दृष्टिकोण के विकास में यही कहा गया किदोनों ही निश्चय-व्यवहार निभाते, लौकिक-लोकोत्तर में संतुलन बिठाते। उनका कर मिश्रण नहीं मूढ़ कहलाते, घी तम्बाकू की घटना भूल न पाते। 2/10) इस संदर्भ में धर्म की मूल चेतना को समझने के लिए आचार्य भिक्षु की धर्मव्याख्या ज्ञातव्य है। सही अर्थों में धर्म वही है जो जिन आज्ञा सम्मत है। 'आणाए मामगं धम्म' भगवान की यह प्रज्ञप्ति है। इस कथन में अहं नहीं, सत्य की यथार्थ प्रस्तुति है। वीतराग कभी उस धर्म की आज्ञा नहीं देते जो आध्यात्मिक न हो। अत: ग्रन्थकार ने धर्म का विवेक दिया, जिनमत-सम्मत, व्रत और अहिंसा, जिनवाणी बाह्य असंयम, अव्रत और अहिंसा ॥ (2/11) क्षीर, नीर निर्णायक बुद्धि से प्रतिपादित धर्म का लौकिक एवं लोकोत्तर स्वरूप श्रावक के लिए वीतरागता का मार्ग प्रशस्त करता है। मनुष्य की स्वाभाविक अभिरुचि रही है कि बिना परिणाम जाने वह पुरुषार्थ नहीं करना चाहता। उसे अपने कर्म का फल अवश्य चाहिए। इसलिए जब श्रावक को श्रमणोपासना की प्रेरणा दी गई तो उसकी उपयोगिता के संदर्भ में भी साथ-साथ कर्मफल की परम्परा का ज्ञान भी करा दिया गया। प्रश्न सामने आया कि श्रमणों की उपासना से क्या उपलब्धि होगी? तो ग्रन्थकार ने एक ही पद्य में आगमिक तत्त्व मीमांसा प्रस्तुत कर दी। श्रमणों की उपासना का फल है श्रवण, श्रवण से ज्ञान, ज्ञान से विज्ञान, विज्ञान से प्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान से संयम, संयम से अनाश्रव, अनाश्रव से तप, तप से कर्म निर्जरा, कर्म निर्जरा से अक्रिया और अक्रिया का फल शाश्वत सिद्धि। यह कार्य-कारण से जुड़ी फल-मीमांसा मन को निष्ठा से जोड़ती है और निष्ठा चरित्र का परिष्कार करती है। 84 ANNIV तुलसी प्रज्ञा अंक 109 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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