Book Title: Tulsi Prajna 2000 04
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 91
________________ लेखक ने श्रावक संबोध में श्रावक के दायित्व और धर्म के सन्दर्भ में विवेक दिया। आपने कहा-श्रावक करणीय-अकरणीय का भेद समझे। बिना मतलब एक पैसे का भी अपव्यय न करें और आवश्यक हो तो सर्वस्व समर्पित कर दे। बिना प्रयोजन चींटी की भी हिंसा परिहार्य है और देश रक्षा हित में जैन श्रावक के लिए युद्ध भी अनिवार्य है। श्रावक दायित्व और धर्म को सम्यक् दृष्टिकोण से समझे। श्रावक संबोध ने श्रावक को व्यावहारिक भूमिका पर भी स्वस्थ जीवन-शैली का प्रशिक्षण दिया है। जैन संस्कृति की सुरक्षा में उसके लिए दायित्व की भूमिका निर्धारित की है। उसे आगाह किया कि वह आयात संस्कृति के फैलते दुष्परिणामों से स्वयं को बचाए। क्योंकि आज जैन समाज में होने वाले आयोजन, उत्सव, जन्म से लेकर मृत्यु तक होने वाली रीति-रस्मों पर अर्थ का अपव्यय और झूठी शान-शौकत की प्रतिस्पर्धा ने जैन संस्कृति पर प्रश्न चिह्न लगा दिया है। पाश्चात्य संस्कृति के अन्धानुकरण ने हमारे आदर्शों और सिद्धान्तों को ताक पर रख दिया है। संस्कृति के अवसरों पर हमारे ही घरों का बाल, युवा और प्रौढ़ तक फिल्मी धुनों पर नाचते हैं, आतिशबाजी करते हैं, शराब का दौर चलता है, आधी-आधी रात तक अमर्यादित खान-पान होता है। ऐसे परिवेश में श्रावक अपना दायित्व समझें । जैन संस्कृति के योगक्षेम में अपना योगदान दें। इसके लिए श्रावक संबोध कहता है हर प्रसंग में जो उपयोगी, उपलब्ध जैन संस्कार-विधि, सम्यक् दर्शन में सहयोगी, भावी पीढ़ी की नई निधि क्यों छोड़ इसे अन्धानुकरणमय भेड़चाल की ढाल बने, कर समय शक्ति का दुरुपयोग, बेमतलब ही बेहाल बने ।। 2/46) हर युग में मनुष्य अपने देश, जाति, कुल, धर्म, नाम, संस्कृति पर गौरव करता है। जैन होना भी गौरव और गर्व की बात है। आचार्य श्री ने आह्वान की भाषा में कहा हैमैं जैनी हूं जनता में धाक जमाएं, खोकर भी लाख, न अपनी साख गमाए। श्रमणोपासक होना सौभाग्य-घड़ी है, धार्मिक संस्कृति की संजीवनी जड़ी है।(1/63) ____ मैं जैन हूं, यह स्वीकृति श्रावक की निष्ठा का प्रमाण-पत्र है। क्योंकि जैनत्व का एहसास उसे जीवन में कभी कोई ऐसा गलत काम नहीं करने देगा जिससे जैन संस्कृति के गौरव का कद छोटा पड़ जाए। आचार्य श्री ने श्रावक की श्रेष्ठताओं को ऊंचे कद पर रखकर कहाश्रमणोपासक भी तीर्थंकर की कृति है। यह विश्व मान्य अनुपम धार्मिक अनुकृति है। (१/६४) तुलसी प्रज्ञा अप्रेल-सितम्बर, 2000 NI IIIIIIV 85 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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