Book Title: Tulsi Prajna 2000 04
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

View full book text
Previous | Next

Page 31
________________ छान्दोग्योपनिषद् में आता है 46 'बलं वाव विज्ञानाद् भूयः - अर्थात् विज्ञान से बल श्रेष्ठ है । अपि ह शतं विज्ञानवताम् एको बलवान् आकम्पयते । स यदा बली र्भवति अथोत्थाता भवति, उत्तिष्ठन् परिचरिता भवति, परिचरन् उपसत्ता भवति, उपसीदन् द्रष्टा भवति, श्रोता भवति, मन्ता भवति, बोद्धा भवति, कर्ता भवति, विज्ञाता भवति ।" ( 7.8.1.31) अर्थ-विज्ञान से (आत्म) बल श्रेष्ठ है, क्योंकि एक बलवान मनुष्य सौ विद्वानों को डराता है । बलवान होने पर ही मनुष्य उठकर खड़ा होता है । उठने पर ही वह सेवा कर सकता है। सेवा करने से वह उसके पास बैठने लायक बनता है। पास बैठने से द्रष्टा बनता है, सुनने वाला बनता है, मनन करने वाला बनता है, बुद्ध बनता है, कर्तृत्वज्ञानी बनता है, विज्ञानी बनता है। वहाँ उपनिषत्कार का अर्थ ' आत्म बल' से था । अब यहाँ स्थिति यह कि शारीरिक बल ही प्रधान हो गया है। शास्त्र - बल की अपेक्षा शस्त्र बल पर जोर बढ़ गया है। पर जैसे अर्थ से सब समस्याएँ नहीं सुलझ सकती, केवल शस्त्र बल से मानव समस्याओं का समाधान नहीं है। समाज में नियंत्रण लाने के लिए तानाशाही कुछ समय तक, कुछ लोगों तक सफल होती है पर इतिहास साक्षी है कि तानाशाहों के नाम भुला दिये जाते हैं। देश, समाज सुधारकों और त्यागियों, प्रेम-प्रचारकों से ही अधिक सुसंस्कृत बनता है। गजनी या चंगेज, नादिरशाह या तैमूर, हिटलर या मुसोलिनी, स्तालिन या पाओ और आज के जीवित तानाशाहों में ईदी अमीन या अय्यातोला खोमेनी, जिया या हरशद आदि हिंसा करके भी विरोध को मिटा नहीं सके हैं। उलटे सन्त अजातशत्रु होते हैं। वे वैर को भी अवैर से जीतते हैं । इसलिए मानकर चलना चाहिए कि कोई भी समाज, जो बनता है वह व्यक्तियों से बनता है। हर व्यक्ति में तामसी, राजसी, सात्विकी तीन गुण होते हैं। बंदर से पूँछ घिसकर या पिटकर विकसित होकर मानव बना तो वह पूरी तरह, रीढ़ की हड्डी खड़ा करके, दो हाथ खुले छोड़कर दो पैरों पर चलने लगा । वह चौपाई से द्विपाद बना। यहां पेट और कमर के चेका मानव क्षुधा - काम से पीड़ित मानव पशु रहा । नाभि से ऊपर का मानव हृदय और मस्तिष्क वाला मानव, विवेकी और भावनाशील मानव, सात्विक वृत्तियों की अनन्त सम्भावना वाला मानव है। वह विकार पर विचार की विजय पा सकने वाला, दैवी अंश वाला मनुष्य है । सन्त उसकी भलाई के लिए रास्ता दिखाते हैं । महाभारत में वन पर्व में प्रश्न आता है'कुतो दिक् - दिशा किधर है ? उत्तर दिया गया है - सत्तो दिक्- सन्त ही दिशा है। हम उन सन्तों की बताई सच्ची दिशा की ओर से मुंह मोड़ते हैं और उल्टी दिशा में \\\\\Y 25 तुलसी प्रज्ञा अप्रेल - सितम्बर, 2000 AII Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152