Book Title: Tulsi Prajna 2000 04
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 55
________________ निराकरण के प्रति अपनी पूरी जागरूकता बनाए रखें और अपनी सभी योग्यताओं और क्षमताओं का इस दिशा में पूरा-पूरा उपयोग कर सकें। यही साधन-संपन्नता है और अंत में रचनात्मक वृत्ति। जब तक हम रचनात्मक वृत्ति को नहीं अपनाते द्वन्द्व असंभव है। किसी भी पक्ष के लिए यह आवश्यक है कि वह इस बात के प्रति आश्वस्त हो कि द्वन्द्व का निराकरण, यदि उचित प्रबंध किया जाए तो अवश्य हो ही जाएगा। यह रचनात्मक वृत्ति द्वन्द्व से निपटने के लिए बहुत सहायक होती है। यदि हम ध्यान से देखें तो उपर्युक्त एक व्यापक मनोगठन-एक दूसरे के प्रति सम्मान और सौहार्दपूर्ण संपर्क तथा जागरूकता और रचनात्मक वृत्ति ठीक उसी प्रकार की दार्शनिक-मानसिक बनावट है जिसे हम जैनदर्शन के अनेकान्तवाद और स्याद्वाद में पाते हैं। द्वन्द्व की स्थिति में हम दूसरे पक्ष को समादर नहीं दे पाते। इसका मूल कारण यही है कि हम ऐकांतिक दृष्टिकोण अपनाते हैं। यदि दृष्टिकोण यह हो कि दूसरा पक्ष भी अपने पक्ष की ही तरह सही या गलत हो सकता है तो दूसरे पक्ष के प्रति असम्मान के लिए कोई स्थान ही नहीं रहेगा। इसी प्रकार सौहार्दपूर्ण संपर्क भी तभी बना रह सकता है जब हम केवल अपने दृष्टिकोण को ही अंतिम न मानकर, दूसरे के पक्ष को समझने के लिए तत्पर हों। दूसरे के लिए भी अंततः अनेकान्तवादी मनोगठन की ही आवश्यकता है। अनेकान्तिक मनोगठन अपने आप ही हममें जागरूकता और रचनात्मक वृत्ति उत्पन्न करता है। जैनदर्शन में जैसा कि हम पूर्व में उल्लेख कर चुके हैं, जाग्रति परं बहुत बल दिया गया है। कहा गया है, अज्ञानी सदा सोते हैं और ज्ञानी सदा जागते हैं ।१३ भाव-शुद्धि-द्वन्द्व-निवारण के लिए एक व्यापक रूप से अनेकान्त दृष्टि तो आवश्यक है ही, साथ में कुछ मूर्त उपाय भी हैं जो द्वन्द्व समाधान की ओर निस्संदेह संकेत करते हैं। इनमें से एक है-भाव-शुद्धि। ___ द्वन्द्व के स्वरूप को बताते हुए हमने यह रेखांकित किया था कि द्वन्द्व सदैव किसी न किसी उग्र-संवेग से आवेष्टित होता है और यह संवेग या भाव सदैव ही विकार युक्त होते हैं। जैनदर्शन में ऐसे चार विकार जिन्हें कषाय कहा गया है, बताए गए हैं-ये हैं-क्रोध, मान, माया और लोभ। यदि हम 'शीतोष्णीय' द्वन्द्व से निजात पाना चाहते हैं तो सबसे पहले हमें इन कषायों पर विजय प्राप्त करनी होगी। इन पर विजय प्राप्त करने का आख़िर तरीक़ा क्या है? इस सन्दर्भ में धर्म-ग्रंथ कहता है कि क्रोध, मान, माया और लोभ से रहित भाव ही भाव-शुद्धि है।५ अतः यदि हम द्वन्द्व से विरत होना चाहते हैं तो इन कषायों से हमें अपने आप को मुक्त करना होगा। तुलसी प्रज्ञा अप्रेल-सितम्बर, 2000 ATTI TION IIIIIIINS 49 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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