Book Title: Tulsi Prajna 2000 04
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 57
________________ विचार, कुटिल वचन से अपने को बचाए रखना है।९ संतोष लोभ को समाप्त करता है। जब संतोष होगा तो लोभ के लिए कोई स्थान रहेगा ही नहीं। क्षमा वस्तुतः मैत्री भाव का विकास है। यदि आपमें मैत्री भाव नहीं है तो आप क्षमा भी नहीं कर सकते। भले ही दूसरे का व्यवहार आपके दृष्टिकोण से कितना ही गलत क्यों न हो, किन्तु यदि आप उससे मैत्री बनाए रखते हैं और उसे क्षमा दे सकते हैं तो देर-सबेर वह आपकी दृष्टि का भी सम्मान किए बगैर नहीं रह सकता। अत: द्वन्द के निवारण की दिशा में यह आवश्यक है कि हम अपने कषायों की भाव-शुद्धि करें। सामायिक-द्वन्द्व निवारण उपायों में, जिसे जैन दर्शन में 'सामायिक' कहा गया है, एक बहुत महत्वपूर्ण प्रविधि है। जहाँ द्वन्द्व है वहाँ विरोध है। द्वन्द्व से यदि विरोध की भावना को निरस्त कर दिया जाए तो द्वन्द्व, द्वन्द्व नहीं रहता। इसके लिए आवश्यक है कि हम समत्व की भावना का विकास करें। जैनदर्शन में 'समत्व' को एक मूल्य के रूप में स्वीकार किया गया है। श्रमण वही है जिसमें समत्व की भावना हो-'समयाए समणो होई'।° समता, मध्यस्थभाव, शुद्धभाव, वीतरागता, चारित्र, धर्म और स्वभाव आराधना-ये सभी एकार्थक शब्द है। आत्मा को आत्मा के रूप में जानते हुए जो राग-द्वेष में समभाव रखता है, वही श्रमण पूज्य माना गया है। वह लाभ और अलाभ में, सुख और दुःख में, जीवन और मरण में, निन्दा और प्रशंसा में तथा मान और अपमान में समभाव रखता है ।२३ समत्व-प्राप्ति के लिए ध्यान रूप होना आवश्यक है। सामायिक में समत्व की उपलब्धि के लिए ध्यान पर बल दिया गया है। तत्त्वानुशासन में कहा गया है कि चित्त को एकाग्र करके उसे विचलित न होने देना ही ध्यान है। लेकिन चित्त को शुभ और अशुभ दोनों पर ही केन्द्रित किया जा सकता है। प्रशस्त ध्यान वह ध्यान है जो समत्व के शुभपरिणाम हेतु होता है। प्रशस्त ध्यान की साधना समत्व-लाभ के लिए होती है। __ क्या समत्व साधना (सामायिक) एक आध्यात्मिक साधना मात्र है अथवा इसका कोई व्यवहार पक्ष नहीं है? डॉ. सागरमल जैन कहते हैं कि समत्वयोग का तात्पर्य चेतना का संघर्ष या द्वन्द्व से ऊपर उठ जाना है। यह जीवन विविध पक्षों में एक ऐसा सन्तुलन है जिसमें न केवल चैतसिक एवं वैयक्तिक जीवन के संघर्ष समाप्त होते हैं, वरन् सामाजिक जीवन के संघर्ष भी समाप्त हो जाते हैं, शर्त यह है कि समाज के सभी सदस्य उसकी साधना में प्रयत्नशील हों।२५ उपनिदेशक, पार्श्वनाथ विद्यापीठ पोस्ट-बी.एच.यू., वाराणसी (उत्तर प्रदेश)२२१ ००५ तुलसी प्रज्ञा अप्रेल-सितम्बर, 2000 NI LITINITIANILITIN 51 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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