Book Title: Tulsi Prajna 2000 04
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 21
________________ शाखायें कुलों का प्रभेद थीं। प्रवचनसार की तात्पर्यवृत्ति में कहा है कि लौकिक दोषों से रहित जो जिनदीक्षा के योग्य होता है वह कुल है। अन्वय-अन्वय का सामान्यतः तात्पर्य 'वंश' है। यह प्रायः स्थान विशेष नाम से स्थापित होता था। जैसे कोण्डकुण्डान्वय और चित्रकूटान्वय। वर्तमान में दिगम्बर परम्परा में नवीन मूर्तियाँ प्रतिष्ठित होती हैं तो उनके लेख में प्रायः कुन्दकुन्दान्वय लिखने की परम्परा है। क्योंकि इन्हें मूलसंघ का प्रतिष्ठापक प्रमुख आचार्य माना जाता है। परवर्तीकाल में आचार्य कुन्दकुन्द के आचार की विशुद्धता, प्रभावक व्यक्तित्व और उनके द्वारा रचित समयसार, प्रवचनसार, पंचास्तिकाय, नियमसार, अष्टपाहुड आदि उत्कृष्ट आध्यात्मिकता से भरपूर ग्रन्थों से लोग इतने प्रभावित हुए कि दिगम्बर परम्परा के अधिकांश संघ, गण, गच्छ आदि के प्रमुखों ने अपने को आचार्य कुन्दकुन्द, कुन्दकुन्दान्वय या कुन्दकुन्दाम्नाय से सम्बन्धित करने में गौरवान्वित समझा। लगभग 12वीं शती के बाद के मूर्ति लेखों के अध्ययन से तो मूलसंघ और कुन्दकुन्दान्वय एक प्रतीत होते हैं।" श्रीमती कुसुम पटोरिया ने लिखा है कि जब दिगम्बर परम्परा में कुछ शिथिलाचारी संघों का आविर्भाव हो गया, तब आचार्य कुन्दकुन्द की भाँति आचरण की विशुद्धता के पक्षपाती आचार्यों ने शिथिलाचार के विरोध में अपने संघ को तीर्थंकर महावीर के मूलसंघ के निकट (या उनकी सीधी परम्परा का) घोषित करने के लिए 'मूलसंघ' नाम दिया। क्योंकि दिगम्बरों में आचार्य कुन्दकुन्द आचरण की विशुद्धता के प्रबल समर्थक थे। अतः मूलसंघ का सम्बन्ध आचार्य कुन्दकुन्द के साथ स्थापित कर दिया तथा अपने से अतिरिक्त जैन संघों को जैनाभासी घोषित कर दिया, क्योंकि इन्द्रनन्दिकृत श्रुतावतार में गोपुच्छिक, श्वेतवसना, द्राविड, यापनीय और निर्पिच्छिक -इन पाँच संघों को जैनाभास कहा है। इनके अतिरिक्त 'बलि' नामक अन्वय के एक उपभेद का भी उल्लेख मिलता है जिसका अर्थ है 'परिवार'। इस तरह हम देखते हैं कि संघ के अन्तर्गत उपर्युक्त इकाइयां कार्य कर रही थीं। इनमें पहले परस्पर भेद या अन्तर का ही पता नहीं चलता था, किन्तु बाद में क्रमशः इनमें दूरियाँ बढ़ती गई। पदमचरित्र'' के रचयिता रविषेणाचार्य (वि.सं. 834) ने अपने ग्रन्थ में गुरुपरम्परा दी है, किन्तु अपने किसी संघ या गण का उल्लेख नहीं किया। इससे भी यह ज्ञात होता है कि दिगम्बर परम्परा में तब तक देव नन्दि, सेन, सिंह, संघों की उत्पत्ति नहीं हुई थी, कम से कम ये भेद स्पष्ट नहीं हुए थे। शक सं. 1355 के मंगराज कवि के शिलालेख में इस बात का उल्लेख है कि भट्ट अकलंकदेव के स्वर्गवास के बाद यह संघ-भेद हुआ। तुलसी प्रज्ञा अप्रेल-सितम्बर, 2000 KNITTINAINITI NITI TINITIN 15 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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