Book Title: Tulsi Prajna 1995 07 Author(s): Parmeshwar Solanki Publisher: Jain Vishva Bharati View full book textPage 9
________________ इनमें से प्रथम मत १६ धारणाओं से, द्वितीय मत ८ धारणाओं से, तृतीव मप्त भी आठ धारणाओं से, चतुर्थ मत सात धारणाओं से और पांचवां मत पांच धाराओं से प्रतिपादित किया जाता था। "मरने के बाद आत्मा रूपवान्, रोगरहित, और संज्ञा-प्रतीति के साथ रहता है । अरूपवान् और रूपवान् आत्मा होता है, न रूपवान् न अरूपवान् आत्मा है, आत्मा सान्त होता है, आत्मा अनन्त होता हैं, आत्मा न सान्त और न अनन्त होता है, आत्मा एकान्तवादी संज्ञी होता है, आत्मा नानात्मसंज्ञी होता है, आत्मा परिमित संज्ञा वाला होता है, आत्मा अपरिमित संज्ञा वाला होता है, आत्मा बिलकुल शुद्ध होता है, आत्मा बिलकुल दुःखी होता है । आत्मा सुखी और दुःखी होता है, आत्मा सुख और दुःख से रहित होता है, आत्मा अरोग और संज्ञी होता है।" इन्हीं १६ कारणों से मरने के बाद आत्मा संज्ञी रहता है, इस मत की पुष्टि होती है। "मरने के बाद आत्मा असंज्ञी रहता है" इस मत की आठ धारणाएं थीं-'मरने के बाद आत्मा असंज्ञी, रूपवान् और अरोग रहता है, अरूपवान्, रूपवान् और अरूपवान्, न रूपवान् न अरूपवान्, सान्त, अनन्त, सान्त और अनन्त, न सान्त और न अनन्त ।' उपर्युक्त दोनों मतों की आठ-आठ धारणाओं में से प्रत्येक को क्रमशः विकल्प के साथ-साथ रखकर "मरने के बाद आत्मा नैव संज्ञी "नैव असंज्ञी रहता है" ऐसा मानने वाले भी अपने मत की पुष्टि के लिए आठ धारणाओं की उद्भावना कर लेते थे । उच्छेदवादियों की सात धारणाएं थीं जिनके कारण वे आत्मा के उच्छेद का उपदेश देते थे१. यथार्थ में यह आत्मा चार महाभूतों से बना है और माता-पिता के संयोग से उत्पन्न होता है, इसलिए शरीर के नष्ट होते ही यह आत्मा भी बिलकुल समुच्छिन्न हो जाता है। २. अन्य वह आत्मा है जो दिव्य, रूपी, कामावचर लोक में रहने वाला तथा भोजन खाकर रहने वाला है । वह सत् आत्मा शरीर के नष्ट होने पर उच्छिन्न और विनष्ट हो जाता है। ३. अन्य वह आत्मा दिव्य, रूपी, मनोमय, अंग-प्रत्यंग से युक्त और हीनेन्द्रिय है। ' वह आत्मा शरीर के नष्ट होने पर नष्ट हो जाता है। ४. अन्य वह आत्मा है जो सभी तरह के रूप और संज्ञा से भिन्न, प्रतिहिंसा की संज्ञाओं के अस्त हो जाने से नानात्म संज्ञाओं को मन में न करने से अनन्त आकाश की तरह अनन्त आकाश शरीर वाला है। वह सत् आत्मा भी शरीर के साथ ही उच्छिन्न हो जाता है । ५. अन्य है वह आत्मा जो विज्ञान शरीर वाला है और शरीर के साथ ही वह भी - उच्छिन्न होता है। ६. अन्य है वह आत्मा जो अकिंचन शरीर वाला है और वह सत् आत्मा भी शरीर __ के साथ ही उच्छिन्न होता है । ७. अन्य है वह आत्मा जो शान्त और प्रणीत नैव संज्ञान संज्ञा है और वह भी तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 ... 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 ... 164