Book Title: Tulsi Prajna 1990 03
Author(s): Nathmal Tatia
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 13
________________ कालिदास ने मृत्यु जैसे बीभत्स दृश्य के वर्णन में शृंगाररस का जो चमत्कार दिखलाया है वह पाठकों को आश्चर्य में डालनेवाला है । ताडका वध का वर्णन इस संदर्भ में मानवीय है राममन्मथशरेण ताडिता, दुःसहने हृदये निशाचरी । गन्धवद्र धिर चन्दनोक्षिता जीवितेश वसति जगाम सा ॥ रीतिकाल में रस, छन्द और अलंकार का निरूपण करनेवाले अनेक लक्षण ग्रन्थ हैं । पर साहित्य के आधार बिना उनकी परिभाषाएं एवं उदाहरण अपूर्ण हैं । वे काव्य शास्त्रीय और पिंगल शास्त्रीय ग्रन्थों पर आधृत हैं । रीतिकाल नायिका भेद के लिए प्रसिद्ध है। इस विषय के सांगोपांग विवेचन के लिए कवि मतिराम का नाम आदर के साथ लिया जाता है। पर कवि भानुदत्त की रसमंजरी और भरतमुनि का नाट्यशास्त्र इसकी तुलना में बहुत आगे है। भक्तिकाल के साहित्य में नीति के ग्रंथों की भी एक बड़ी शृंखला चली। सतसई, दोहावली, शतक और बावनी साहित्य उसमें प्रमुख है । पर इस विशाल साहित्य में बहुत कम अंश ऐसे हैं, जो लोकोत्तर संस्कृत एवं लौकिक संस्कृत-चाणक्यनीति, शुक्रनीति एवं नीतिशतक आदि से भिन्न हों। भक्तिकालीन साहित्य संस्कृत साहित्य की तुलना में आगे है तो इसी दृष्टि से कि उसने चिंतन की कुछ नई निम्नांकित रेखाएं खींची हैं ० निर्माण ईश्वर में विश्वास । ० बहुदेववाद और अवतारवाद का विरोध । ० जातिवाद एवं वर्णवाद का विरोध । ० रूढ़ियों व आडंबरों का विरोध । आधुनिक काल (ई० १६००......) . भारतेन्दु, प्रसाद, पन्त, दिनकर, निराला, प्रेमचन्द, द्विवेदी और महादेवी वर्मा इस युग की प्रमुख विभूतियां हैं। संस्कृत नाटकों और इस के नाटकों के आदर्शों में बहुत कम परिवर्तन है । अनेक नाटकों में संस्कृत के मंगलाचरण, नांदीपाठ और भरत वाक्य ज्यों के त्यों उद्धृत हैं। संस्कृत नाटकों के मौलिक तत्त्व-सुखवाद, आदर्शवाद और काव्यमयता हिंदी के नाटकों में है। पर इन मूल्यों के स्थिरीकरण का श्रेय संस्कृत नाटकों को ही मिलता है। आधुनिक कवियों ने संस्कृत के वर्णवृत्तों का सफल प्रयोग किया है। हरिऔध का 'प्रिय प्रवास' इस बात का स्पष्ट निदर्शन' है। इसकी भाषा भी संस्कृत प्रधान है। कहीं-कहीं तो 'ही और थी' के अतिरिक्त हिन्दी का कुछ भी नहीं है । सौन्दर्य और संक्षिप्तता का जैसा उत्कृष्ट रूप संस्कृत साहित्य में उभर पाया है, वैसा हिंदी साहित्य में नहीं। 'रूपोद्यान-प्रफुल्ल प्रायकलिका, राकेन्दु बिम्बानना'..........जैसी पदावलियां इसके सुन्दर उदाहरश हैं । इस युग के छायावादी कवियों ने प्रकृति को मानवीय रूप और मानव को प्रकृतिमय रूप प्रदान करने का उपक्रम किया है। पर संस्कृत साहित्य में किया गया मानवीकरण अधिक स्वाभाविक है। शकुन्तला के पतिगृह प्रस्थान पर प्रकृति की शोकातुर अवस्था का जो वर्णन खण्ड १५, अंक ४ (मार्च; ६०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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