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ने विक्रम संवत् १४८५ में° जिनस्तोत्ररत्नकोश, सोमतिलक के वीरस्तोत्र और चतुर्विंशतिजिनस्तवन, २ वस्तुपाल का अम्बिकास्तवन, ३ एवं धर्मशेखर गणि ने चतुर्विशति जिनस्तव" का प्रणयन किया। सोमसुन्दरसूरि के युष्मच्छब्दनवस्तवी और अस्मच्छब्दनवस्तवी में १८ स्तव निर्मित हैं । रत्नशेखरसूरि ने त्रिसंधान स्तोत्र की रचना की।
ईसा की सोलहवीं शताब्दी के अन्त में समयसुन्दरगणि ने तीन स्तवों की रचना की।४५ इसी समय में उपाध्याय श्रीमद्यशोविजय जी ने श्री आदिजिनस्तोत्र, श्री पार्श्वजिनस्तोत्रम्, श्री शङ्खेश्वर पार्श्वजिन स्तोत्रम्, श्री महावीर प्रभु स्तोत्रम्, वीरस्तवः, समाधिसाम्यद्वात्रिंशिका, स्तुतिगीत६ आदि अनेक स्तोत्रों की रचना कर स्तोत्र साहित्य को समृद्ध बनाया।
"संस्कृत प्राचीन स्तवन सन्दोह में अनिदिष्ट लेखक नामवाले ऋषभस्तवन, अजित स्तवन, सम्भव स्तवन, अभिनन्दन स्तवन, साधारणजिन स्तवन, श्री विंशतिजिनस्तवन, सप्तति जिनस्तवन, त्रिकालजिनस्तवन, शाश्वताशाश्वतजिनस्तवन, शत्रुजयस्तवन, गिरिनार स्तवन, अष्टापदस्तवन आदि शताधिक स्तोत्र मुद्रित हैं।
इसी प्रकार जैन स्तोत्र समुच्चय और जैन स्तोत्र सन्दोह में भी अनेक स्तोत्र संगहित हैं। बीसवीं शताब्दी में भागेन्दु कृत "महावीराष्टक एवं मंगलाष्टक'४९ आदि स्तोत्र उल्लेखनीय हैं।
इस प्रकार द्वितीय शताब्दी से लेकर बीसवीं शताब्दी तक जैन कवियों ने संस्कृत में स्तोत्रों का प्रणयन कर स्तोत्र परम्परा को अक्षुण्ण बनाये रखा तथा सहस्त्राधिक स्तोत्रों की रचना कर जैन संस्कृत स्तोत्र परम्परा के विकास में अपना अभिनन्दनीय योगदान दिया। संदर्भ : १. संस्कृत काव्य के विकास में जैन कवियों का योगदान-डा० नेमीचंद शास्त्री, पृ०६८ २. काव्य माला सत्वमगुच्छक, पं० दुर्गाप्रसाद और वासुदेव लक्ष्मण सम्पादित, निर्णय
सागर प्रेस, बम्बई सन् १९२६, पृ० १-१०।। ३. "स्तोत्रावली" भूमिका, भू० ले० डा० रूद्रदेव त्रिपाठी, पृ० ५२ । ४. वही ५. काव्यमाला सप्तमगुच्छक, निर्णयसागर प्रेस, बम्बई १९२६, पृ० २२-२६ । ६. संस्कृत काव्य के विकास में जैन कवियों का योगदान-डॉ० नेमिचंद शास्त्री, पृ०६८ ७. स्तोत्ररत्नाकर, प्रथम भाग, यशोविजय संस्कृत पाठशाला, म्हेसाणा, सन्-१९१३ तथा
पृ० ६८ आगमोदय समिति, बम्बई १९२६ ई० । ८. आगमोदय समिति, बम्बई, विक्रम संवत् १९८२ । ६. आप्त परीक्षा, वीर सेवा मंदिर, सरसावा, १९४७ ई० प्रस्तावना । १०. श्री पुरपार्श्वनाथ स्तोत्र-वीर सेवा मंदिर, सरसावा १९४६ ई० । ११. शरण्यं नाथाऽर्हन भव भव भवारण्य विगति-----
च्युतानामस्माकं निखर-वरकारूण्य-निलयः।
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तुलसी प्रज्ञा
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