Book Title: Tulsi Prajna 1990 03
Author(s): Nathmal Tatia
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 36
________________ सकता है । क्रोधी साधु पुरुषों पर भी कटुवचनों द्वारा आक्षेप करता है । क्रोध सबसे घातक शत्रु है-क्रोधः शत्रुः शरीरस्ये मनुष्याणां द्विजोत्तम -- क्रोध मुनियों और यतियों के संचित पुण्य व साधना का क्षरण कर लेता है। क्रोधालु व्यक्ति धर्म विहीन होते हैं--उन्हें अभीष्ट गति प्राप्त नहीं होती (महाभारत-आदिपर्व ४२.८) । __ श्रीमद्भगवद् गीता में श्रीकृष्ण का स्पष्ट कथन है--'काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः'- रजोगुण क्रियाशील है-इसी से रजोगुण समुद्भव कहा है। काम और क्रोध में अधिक अन्तर नहीं 'यः कामः स क्रोध: य क्रोध: सकामः' । आधुनिक मनोविज्ञान भी इस मत का अनुमोदन करता है । क्रोध को महापापात्मा कहा है क्योंकि क्रोध में ज्ञान आवृत्त होता है और व्यक्ति विवेक और संयमहीन हो जाता है। श्रीगीता में पुनः श्रीकृष्ण कहते हैं--संगात् संजायते काम कामात्क्रोधोऽभिजायते-'काम से क्रोध और क्रोधाद्भवति संमोह-तत्पश्चात् स्मृति विभ्रम और बुद्धि-नाश'। इस प्ररार क्रोध विवेक और स्मृति को नष्ट कर देता है। श्रीगीता में अनेक स्थलों पर श्रीकृष्ण ने काम-क्रोध को वर्जनीय गिना है। वह नरक का द्वार है । महर्षि व्यास के अनुसार क्रोध न करने वाला व्यक्ति सौ वर्षों तक यज्ञ करने वाले से भी श्रेष्ठ है। (महाभारत आदिपर्व, ७६-६) महात्मा विदुर धृतराष्ट्र से कहते हैं--- अव्याधिज कटुकं शीर्षरोगि पापानुबन्धं परुषं तीक्ष्णमुष्णम् । सता पेयं यन्न पिबन्त्यसन्तो मन्यु महाराज पिव प्रशाम्य ॥ महाराज ! जो रोग । उत्पन्न, कटु, सिर-शूल पैदा करने वाला, पाप से सम्बद्ध, कठोर, तीक्ष्ण और गरम है, जिसका सज्जन पान करते हैं और जिसे दुर्जन नहीं पी सकते, उस क्रोध का पान कर आप शांत हो, क्योंकि 'कामश्चराजन् क्रोधश्च तो प्रज्ञानं विलुम्पत:'--काम व क्रोध ज्ञान को नष्ट कर देते हैं। विदुर कहते हैं क्रोध लक्ष्मी और अभिमान--- सर्वस्व का नाश कर देता है । अपना मंगल चाहने वाला व्यक्ति सर्वप्रथम क्रोध रूपी अज्ञान नष्ट करता है। सूर्य रात्रि के अन्धकार को विच्छिन्न किए बिना उदित नहीं होता--लोक-मर्यादा व व्यक्तिहित दोनों दृष्टियों से क्रोध गर्हणीय है। महाभारत में अनेक स्थलों पर महर्षि व्यास ने क्रोध को महाशत्रु गिना है----यथा आदिपर्व-७६-६, ४२-३, वनपर्व २०७-३२। महर्षि व्यास ने तो यहां तक कह दिया कि देवता उसे ही ब्राह्मण समझते हैं जिसने क्रोध और मोह त्याग दिया। (वनपर्व, २०६-२३) ___ संस्कृत के कवियों ने अपने महाकाव्यों में यथा-अवसर क्रोध और क्रोधी की भर्त्सना की है। अबन्ध्य कोपस्य विहन्तुरापदो भवन्ति वश्याः स्वयमेव देहिनः । अमर्षशून्येन जनस्य जन्तुमा न जात हार्देन न विद्विषादरः । (किरातार्जुनीय, २-३३) उत्तररामचरित में भवभूति का भी यही मत है। ३२ तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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