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णिम्मला होदि' । जैन धर्मावलम्बियों का यह प्रथम कर्तव्य है कि वे समस्त जीवों से क्षमा याचना करें और उन्हें क्षमा भी करें। सभी प्राणियों के प्रति समभाव का यह प्रथम उपकरण है, जिसमें किसी से भी बैर भाव नहीं। यह संकल्प वस्तुतः क्षमा, मैत्री और अप्रमाद का ही संकल्प है। क्रोध का कारण द्वेष है-'दोसे दुविहे पण्णत्ते तं जहां कोहे य माणेय' । द्वेष समाप्त करो, क्रोध स्वतः नष्ट हो जाएगा। (ठाणं-२-३-२) शान्त सुधारस में भी 'क्रोध क्षान्त्या मार्दवे नाभिमान'-कहा है। क्षमा मनुष्य का भूषण है । क्षमा मानसिक शांति का महत् और अचूक अस्त्र है । सभी तत्त्व-चिन्तकों ने क्षमा को मनुष्य की अप्रतिम शक्ति गिना । 'क्षमते आत्मो परिस्थितिनां जीवानां अपराधय' । पृथ्वी का एक नाम क्षमा है । दुर्गा को भी 'दुर्गा-शिवा क्षमा' कहा गया है, 'क्षमा तु श्रीमुखे कार्यायोग पट्टोतरीयका' । क्षमा केवल वाणी से नहीं वरन् अन्तर्मन से होती है और वही सार्थक है।
भगवान महावीर उत्तराध्ययन सूत्र की २६ वीं गाथा में कहते हैं- 'खन्तिएणं' परीसहे जिणइ'-क्षमा से समस्त परीषहों पर विजय प्राप्त होती है। इसी में गाथा २२-४५ में कहा गया है कि क्रोधादि कषायों का पूर्ण निग्रह इन्द्रियों को वश में करने से मात्र के अनाचार से निवृत्त होना ही श्रामण्य है। राजमती का रथनेमि से यह उद्बोधन प्राणि लिए सत्य है। भावपाहुड़ में वीर और धीर पुरुष का यही गुण बताया गया है, जिन्होंने चमकते हुए क्षमा खङ्ग से उद्दण्ड कषाय रूपी योद्धाओं पर विजय प्राप्त करली है।
___पांचों इन्द्रियों का दमन करके क्रोधादि से निवृत्त होने पर यमराज के क्रोध का कोई कारण शेष नहीं रहता।
जैन शास्त्रों में उत्तम क्षमा (धर्म के दस लक्षणों में मुख्य) के लिए कहा गया है कि क्रोध के उत्पन्न होने पर भी जो रंच मात्र भी क्रोध न करे-उसे उत्तम क्षमा धर्म होता है। प्रत्येक स्थिति में परम समरसी भाव स्थिति में रहना ही उत्तम क्षमा है ।
जैन धर्म उत्तम क्षमा को सर्वाधिक महत्त्व देता है क्योंकि एक ओर यह अहिंसा व्रत का अचूक साधन है ---सर्वात्म मैत्री भाव का-दूसरी ओर यह वीतराग भाव उदय का भी । उपवास करके तपस्या करने वाले निस्सन्देह महान् हैं पर उनका स्थान उनके अनन्तर है जो अपनी निन्दा, भर्त्सना और उपकार करने वाले को क्षमा कर देते हैं। क्षमा न तो दौर्बल्य है और न पलायन । वह मनुष्य की मानसिक शुचिता और सदाचारिता का प्रमाण है। 'सत्यपि सामर्थ्य अपकार सहनं क्षमा'-सामर्थ्य रहते हुए भी जो अपकार सहता है, वही क्षमा धर्म का पालन है।
विष का पान कर सत्त्वस्थ रहना ही शिवत्व है । शास्त्रों में प्रथम और द्वितीय क्षमा का लक्षण इस प्रकार दिया गया है
__ अकारण अप्रिय भाषण करने वाले मिथ्यादृष्टि से अकारण त्रास देने का प्रयास वह मेरे पूण्य से दूर हुआ है-ऐसा विचार कर क्षमा करना प्रथम है। अकारण मझे त्रास देने वाले को ताड़न और बध का परिणाम होता है, वह मेरे सुकृत से दूर हआ
खण्ड १५, अंक ४ (मार्च, ६०)
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