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व्यक्ति का निर्माण होता है । इसी से जीवन विज्ञान की शिक्षा पद्धति में ध्यान के द्वारा भोजन और पोषण की प्रक्रियाएं साथ-साथ चलती हैं, जो शिक्षा का अनिवार्य अंग है । आत्मानुसंधान की पूर्णता ही जीवन की पूर्णता है । इस पद्धति में समभाव और सहिष्णुता, आत्मानुशासन और आत्मबल, शारीरिक व मानसिक संतुलन के लिए और महत्त्वपूर्ण पक्ष है सामायिक | जैन साधना की परम् उत्कृष्ट पद्धति है सामायिक | सामायिक का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है - 'समय' अर्थात् आत्मा के निकट पहुंचना | बाह्य प्रभावों से मुक्त होकर अतल आंतरिक क्षमता और शक्ति प्राप्त करना । 'जो समो सव्व भूतेषु तस्स सामायिगं ढाई' सामायिक के महत्त्व का अकाट्य प्रमाण है—
समभावो सामइयं तण कंचण सत्तु मित्तविसओति'
तृण और स्वर्ण में, शत्रु और मित्र में समभाव ही सामायिक है । अर्थात् सर्वभूतो के प्रति समभाव । षडावश्यक में सामायिक का प्रथम स्थान है । एकीभाव द्वारा बाह्य परिणति से आत्माभिमुख होना सामायिक है । सामायिक समत्व है ( अर्थात् रागद्वेष से परे, मानसिक स्थैर्य और अनुकूल-प्रतिकूल में मध्यस्थ भाव रखना) । संयम, नियम, तप में संलग्न रहना ही सामायिक है । जब वैर, घृणा, द्वेष, विरोध आक्रामक वृत्ति ही नहीं रहेगी, तब कहां से आएगा क्रोध कषाय ।
मनोविज्ञान ने जहां क्रोध का उपचार बताया है वहां जैन-विज्ञान उपचार और परिहार के साथ-साथ उसके रूपान्तरण और आन्तरिक क्रियाशीलता के द्वारा व्यक्तित्व के सम्यक विकास का निरूपण भी किया है । ज्ञान, दर्शन और चारित्र का परमोत्कर्ष ही इस रूपान्तरण और क्रियाशीलता का लक्ष्य है । ज्ञान से पदार्थों का ज्ञान, दर्शन से श्रद्धा और चारित्र से कर्मास्रव का निरोध होता है । तीनों एक दूसरे के पूरक हैं । चारित्र के बिना ज्ञान व दर्शन के बिना चारित्र कुछ भी अर्थ नहीं रखते । बाह्म और आभ्यन्तर परिग्रह से मुक्त होना ही मानव जीवन का परम लक्ष्य है । धर्म, दर्शन और अध्यात्म के साथ में जैन मनोविज्ञान भी अनुपम और अनन्वय है ।
आज विश्व में चारों ओर नयी नैतिकता की मांग हो रही है । विज्ञान और तकनीकी युग की भौतिक विभीषिका से वैज्ञानिक ही संत्रस्त हैं - एक आवाज गूंज रही
- 'भारतीय पथ' (दि इंडियन वे ) को अपनाने की । मनुष्य की आंतरिक शक्ति को उभार कर नए आयाम देने की, मानवीय आचार संहिता को सेवा, त्याग, समता और संयम के साथ व्यक्ति और समाज के व्यापक संतुलन और सामन्जस्य की । विज्ञान पंगु होकर अध्यात्म और दर्शन का संबल खोज रहा है । बौद्धिक ऊहापोह ने हमारी भावनात्मक क्रियाशीलता विकृत कर दी है । विनोबा भावे के शब्दों में स्वार्थ, सत्ता और सम्पत्ति ही जीवन का लक्ष्य है । कुछ ऐसे चिन्तक भी हैं जो की पाशविकता, आक्रामक भावना, प्रतिशोध और सत्ता स्वार्थ को आवश्यक बता रहे हैं। उदाहरणार्थ – 'नेकेड एप', दि टेरिहोरिन इम्पेरेटिक आदि ग्रन्थ । आज प्रत्येक पन्द्रह वर्ष में मनुष्य की बुद्धि ( ज्ञान नहीं ) दुगुनी हो रही है—उसके बोझ से वह स्वयं घबरा उठा है । नियमन ओर नियंत्रण का नितांत अभाव है । अर्थवत्ता और गुणवत्ता ऐषणाओं और कषायों में धूमिल
तुलसी प्रज्ञा
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