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अपनी अस्मिता की खोज से बृहत् मानवीय मूल्यों का संधान करना चाहिए। इसी प्रकार एक अन्य विद्वान् का मत है कि मनुष्य का शंकालु स्वभाव, अविश्वास, संयम और मानसिक विक्षेप और क्रोध, उसकी व्यावहारिकता नष्ट कर एक ऐसा प्रतिशोध उपस्थित करते हैं, जिससे अन्ततः हतप्रभ होकर वह अपने से ओर समाज से ही टूट जाता है । अब हम प्रसिद्ध मनोशास्त्री डॉ० एलबर्ट ऐलिस का अभिमत देखें। डॉ एलिस ने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ 'हाड टू लिव विद एण्ड विद आउट एन्गर' में क्रोध पर अत्यन्त वैज्ञानिक व विवेकपूर्ण विचार प्रस्तुत किए हैं। उनका मत है कि क्रोध मानव जीवन में सर्वाधिक अपकारक व निरर्थक है । उन्होंने उन विद्वानों का सतर्क उत्तर दिया है जो यह मानते हैं कि क्रोध अपनी सीमित परिधि में, एक ऐसा कवच है, जो आक्रामक व आततायी समाज से व्यक्ति की रक्षा कर, उसके 'अहं' का बचाव करता है। इस भ्रांत धारणा का विरोध करते हुए डॉ० एलिस ने यह प्रतिपादित किया है कि क्रोध व्यक्ति के व्यक्तित्व का खण्डन कर उसे त्रिपथगामी बनाता है। वे आगे कहते हैं कि क्रोधी स्वभाव वाले व्यक्ति से सभी दूर रहकर उसकी अवहेलना करते हैं। डॉ० एलिस ने क्रोध के उपचारार्थ नवीन और लोकप्रिय पद्धति 'रेशनल इमोटिव थिरेपी' प्रचलित की है। यह पद्धति मनुष्य की बौद्धिकता का परिष्करण कर उसके संवेगों का उदात्तीकरण करती है । क्रोध का सामान्य उपचार और उससे निवृत्ति निम्नलिखित उपायों से संभव है(१) क्रोध की आत्म स्वीकृति, आत्म-संलाप व निरीक्षण, (२) उसके कारणों का विवेकपूर्ण वस्तुनिष्ठ विश्लेषण, (३) रचनात्मक वृत्ति से पारस्परिक संप्रेषणीयता द्वारा यथार्थ बोध (४) अन्तर्दर्शन (५) बाह्य मीति (एग्रोफोबिया) से मुक्ति आदि ।
प्रेक्षा ध्यान एक ऐसी सिद्ध पद्धति और प्रक्रिया है, जो मनुष्य की आंतरिक शक्ति का विवेकीकरण व उदात्तीकरण कर उसे आत्म-साक्षात्कार व आत्म दर्शन कराती है। प्रज्ञा के जागरण का सर्वाधिक शक्तिशाली साधन है ---समता और अनेकांत दृष्टि, प्रज्ञा का सतत चैतन्य । इन्द्रियातीत चैतन्य का विकास, जिसका सुखद परिणाम है संयम, समता और शांति, अर्थात् सर्वतोभावेन क्षमा भाव । युवाचार्य महाप्रज्ञ कहते हैं कि
'अशेष की अनुभूति ममत्व और तनाव का विसर्जन है'-क्रोध का आवश्यक फल है विकृत अहं और तनाव । आज विज्ञान ने यह प्रमाणित कर दिया है कि मानव जीवन में संस्कारों का बड़ा महत्व है-ये संस्कार कम से कम पांच पीढ़ी तक चलते रहते हैं। हेय संस्कारों का शुद्धिकरण जीवन को उच्च भाव और ऊर्ध्व मार्ग पर अग्रसर करता है। संस्कार की शुद्धि वस्तुतः आत्म-शुद्धि है-'आत्म शुद्धि साधनं धर्मः' । जिस क्षण में रागद्वेष, घृणा, जुगुप्सा-क्रोधादि कषाय उत्पन्न हो----तब अप्रमत्त भाव से उनका निषेध और निराकरण आत्मशुद्धि का हेतु बनता है । प्रसिद्ध विद्वान् अब्राहम ओसलो ने मानव-चेतना के जो ६ स्तरों का विवेचन किया है, उसकी अन्तिम स्थिति आत्म-साक्षात्कार में है। आत्म-साक्षात्कार की यह भूमिका मनुष्य के सामाजिक आचार और मूल्यों पर आधृत है-इन मूल्यों के लिए भी संस्कारों का शुद्धिकरण अनिवार्य है। आज व्यक्ति और समाज भय और चिन्ता से आक्रांत हैं। प्रसिद्ध मनोशास्त्री कर्ट राइजर कहते हैं कि सम्पूर्ण विश्व एक सार्वमौम नियम व व्यवस्था से बंधा है----इस नियम और व्यवस्था का अति
तुलसी प्रज्ञा
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