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कोहो पीइं पणासेइ.
0 प्रो० कल्याणमल लोढ़ा
जैन धम में क्रोध एक कषाय है। चार कषायों में--क्रोध, मान, माया और लोभ में क्रोध की सर्वप्रथम गणना की गयी है। आस्रव के पांच द्वारों में कषाय चतुर्थ है। पांच द्वार हैं-मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग । 'कषति इति कषायः'—जो आत्मा को कसे और उसके गुणों का घात करे वह कषाय है। 'कर्षति इति कषाय' ---जो संसार रूपी कृषि को बढ़ाए-जन्म-मरण, नाना दुःखों का वर्धन करेजो आत्मा को बंधनों में जकड़ कर रखे--- वही कषाय है । कषाय आत्मा का आंतरिक . कालुष्य है। 'कषाय वेदनीयस्योदयादात्मनः कालुष्य क्रोधादिरूपमुत्पद्यमानं' कषाया; मात्मानं हिनस्ति'-- यही कषाय है । कर्म के उदय से होने वाली कलुषता कषाय कहलाती है क्योंकि वह आत्मा के स्व-भावित स्वरूप को कस देती है--क्रोध, मान, माया, लोभ के पंक में धंस कर जीव अपने स्वभाव से विस्मृत होकर वि-भाव (विकृत भाव) में लिप्त हो जाता है, जहां केवल एषणाएं हैं-अनवरत अतृप्ति, स्पर्धा और भोग प्रवृत्ति के साथ अधिकार-लिप्सा और आत्म प्रवंचना है। जीवन एक भुलभुलैया बन जाता है, जिसमें प्रवेश के द्वार तो अनेक हैं पर बाहर आने के अत्यन्त दुष्कर द्वार हैं । जैन धर्म इसी से कषायों की निकृति पर बल देता है-जैन धर्म ही क्यों प्रत्येक धर्म और अध्यात्म भी।
जिन जीवों के कषाय नष्ट हो चुके हैं, जो वीतराग हैं उनकी सभी क्रियाएं ईर्यापथिकी हैं और जो क्रियाएं सांसारिक बन्धन को और कसती हैं वे सांपरायिक आस्रव हैं । तत्त्वार्थ सूत्र के अनुसार ‘सकषाया कषाययोः साम्परा-यिकेर्यापधिकोः (६-५) कषाय चारित्रिक मोहनीय कर्म बंध के हेतु हैं--वे आत्मा को उद्वेलित करते हैं। चारित्र मोहनीय कर्म के दो भेद हैं—कषाय और नोकषाय। इसके भी अनेक भेदप्रभेद हैं । उत्तराध्ययन के अनुसार कषाय के प्रत्याख्यान से वीतराग भाव उत्पन्न होता है---और जीव सुख-दुःख में सम हो जाता है (२६-३७)।
कषाय से उन्मत्त व्यक्ति पित्त से उन्मत्त व्यक्ति से भी अधिक तीव्र होता है'क्रोध पित्त निज छाती जारा।'
जिस प्रकार नाव के छिद्र को रोक देने से नाव डूब नहीं सकती उसी प्रकार कषायों के अवरुद्ध होने से सभी आस्रव अवरुद्ध हो जाते हैं। कषाय पुनर्जन्म वृक्ष की जड़ों को सींचते हैं।
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तुलसी प्रज्ञा ...
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