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मूलरूप में उपलब्ध नहीं हुआ । अग्निवेश तंत्र के खंडित अंश (चिकित्सा स्थान के १७वें अध्याय से ३० अध्याय तक, सम्पूर्ण कल्पस्थान के १२ अध्याय तथा सिद्धिस्थान के १२ अध्याय) को आचार्य डल्हण ने परिपूरित किया । कालान्तर में इस ग्रंथ का परिसंस्कार हुआ जिसके परिसंस्कारकर्ता थे आचार्य चरक । इस प्रकार वर्तमान में उपलब्ध चरक संहिता अग्निवेश तंत्र का परिसंस्कारित रूप है ।
अनेकान्तवाद जैन धर्म का एक महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त है जिसमें पारस्परिक विरोध भाव के समूलोच्छेद की भावना निहित है । वह दुराग्रह एवं अहं भाव से मनुष्य को विरत करता है और उसमें समता दृष्टि उत्पन्न करता है ।
तत्त्व का अन्वेषण करने वाला व्यक्ति किसी भी बात को सहजता से स्वीकार या अस्वीकार नहीं करता । वह उसे अनेक स्थितियों और विविध सन्दर्भों में बिठाकर उसकी विशेषताओं का उत्खनन करता है । वह वस्तु स्वरूप की गहराई में झांकता है और उसके तल तक जाने का प्रयत्न करता है । प्रत्येक वस्तु या तत्त्व को वह तर्क की कसौटी पर कसता है और उसके परिणाम की प्रतीक्षा करता है। जल्दबाजी में वह न कोई निर्णय करता है और न कोई कदम उठाता है। यही कारण है कि वह संभावनाओं में विश्वास करता है और प्रत्येक संभावना को लेकर वह वस्तुतत्त्व की परीक्षा करता है। तर्क की कसौटी पर खरा उतरने पर ही वह उसे स्वीकार करता है । वह आग्रह अपेक्षा ग्रहण में विश्वास करता है और वस्तु के प्रत्येक पहलू का सूक्ष्म निरीक्षण करता हुआ "ही" तक जाने से पूर्व उस वस्तु के वास्तविक स्वरूप को पहचानने का प्रयत्न करता है । इस वैचारिक उदारता या दुराग्रह के अभाव का दूसरा नाम ""अनेकान्तवाद" है ।
अनेकान्त में आग्रह के लिए कोई स्थान नहीं है । आग्रह ही दृष्टिकोण को संकुचित या एकपक्षीय बनाता है। किसी भी वस्तु के विषय में आग्रहपूर्वक जब कहा जाता है तो उससे वस्तु स्वरूप का वास्तविक प्रतिपादन नहीं हो पाता । यही कारण है कि वस्तु को जैसा समझा जाता है वह केवल वैसी ही नहीं है, उससे भिन्न कुछ अन्य स्वरूप भी उसका है, जिसे जानना या समझना आवश्यक है । जैसे "देवदत्त अमुक लड़के का पिता है" - जब यह कहा जाता है तो वस्तुतः पुत्र की अपेक्षा से वह पिता है, अतः यह ठीक है । किन्तु वह देवदत्त केवल पिता ही नहीं है, अपितु वह अपने पिता की अपेक्षा से - पुत्र भी है और अपनी बहिन की अपेक्षा से भाई तथा मामा की अपेक्षा से भान्जा भी " है । इस प्रकार वह एक ही देवदत्त अनेक धर्मात्मक है । इसका स्वरूप अथवा वह वस्तु स्थिति अनेकान्त के द्वारा भली-भांति समझी जा सकती है ।
आयुर्वेद शास्त्र में भी अनेकान्त का आश्रय लिया गया है और उसके आधार पर वस्तु स्वरूप का प्रतिपादन किया गया है, यह अनेक उद्धरणों से सुस्पष्ट है । आयुर्वेद में " जहां अनेकान्त के आधार पर विभिन्न विषयों का प्रतिपादन एवं गंभीर विषयों का विवेचन किया गया है, वहां तन्त्र युक्ति प्रकरण के अन्तर्गत उसका परिगणन कर उसके स्वतन्त्र अस्तित्व को भी स्वीकार किया गया है । आयुर्वेद शास्त्र में कुल ३६ तन्त्र युक्तियां प्रतिपादित की गई हैं, जिसमें अनेकान्त भी एक तन्त्रयुक्ति है । आयुर्वेद शास्त्र
तुलसी प्रज्ञा
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