Book Title: Tulsi Prajna 1990 03
Author(s): Nathmal Tatia
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 15
________________ महर्षि चरक की अनेकान्त सम्बन्धी अवधारणा आचार्य राजकुमार जैन* भारतवर्ष एक धर्म प्रधान देश है । अतः भारतीय जन-जीवन में आध्यात्मिक, धार्मिक भावना एवं सामाजिक सौहार्दभाव की जड़ें इतनी गहरी जमी हुई हैं कि अनेक वर्षों के आघात-प्रत्याघात भी उनका समूलोच्छेदन नहीं कर पाए । भारतीय चिन्तन धारा ने जहां परहित विवेक की प्रतिष्ठापना की वहां इसने “मैं" और "विश्व" तथा उसके पारस्परिक सम्बन्ध को लेकर उन्मुक्त और गम्भीर मनन किया है। दिव्यद्रष्टा ऋषियों ने ऐहिक चिन्तन से मुक्त होकर आत्म तत्त्व की गवेषणा में अपनी समग्र शक्ति एकाग्र चित्त से लगाई। उन्होंने आत्म साधना की प्रक्रिया का अन्वेषण किया और ज्ञान के आधार पर अलौकिक चक्षुओं द्वारा संसार के परिभ्रमणशील चक्र का अवलोकन कर उसकी यथार्थता से मानव मात्र को अवगत कराया। भारतीय दर्शनशास्त्र एवं आयुर्वेद दोनों ही भारतीय संस्कृति का पोषण एवं संवर्धन करने वाले अभिन्न अंग रहे हैं । भारतीय दर्शनकार ऋषियों ने दर्शनशास्त्र के माध्यम से जहां विश्व की चेतनाभूत आत्मा को जागृत कर उसे निःश्रेयस के पथ पर अग्रसर किया वहां आयुर्वेद ने आत्मा के निवास-स्थान भूत शरीर की स्वास्थ्य रक्षा, आरोग्य एवं अनातुरावस्था के लिए विभिन्न उपायों का निर्देश किया ताकि स्वास्थ एवं अनातुर शरीर के माध्यम से आत्मा अपने चरम लक्ष्य निवृत्ति को प्राप्त कर सके । जिस प्रकार संसार चक्र के रूप में आत्मा और शरीर परस्पर संयुक्त हैं उसी प्रकार शास्त्रीय अध्ययन पद्धति के रूप में दर्शन और आयुर्वेद का पारस्परिक सम्बन्ध प्रारम्भ से ही चला आ सामान्यतः सभी दर्शनों ने न्यूनाधिक रूप में आयुर्वेद और उसके सिद्धान्तों को प्रभावित किया है । क्योंकि आयुर्वेद के संहिता ग्रंथ ऐसे काल की देन हैं जब दर्शनों ने भारत में प्रचलित तत्कालीन समस्त विद्याओं को प्रभावित किया था। अतः आर्षकाल में दर्शन और आयुर्वेद का विकास समान रूपेण होने से तथा दोनों शास्त्रों का समान ज्ञान अजित करने वाले प्रवक्ताओं (ऋषियों) द्वारा इनकी रचना किये जाने से दर्शन तथा दार्शनिक विचारों का प्रर्याप्त प्रभाव आयुर्वेद पर पड़ा है । चरक संहिता, सुश्रुत संहिता एव अष्टांग हृदय आयुर्वेद के महत्त्वपूर्ण ग्रंथ हैं। चरक संहिता के आद्य प्रवक्ता (ग्रंथकर्ता) महर्षि अग्निवेश थे, अतः उनके नाम के आधार पर ग्रंथ का नामकरण "अग्निवेश तंत्र" हुआ। कालान्तर में यह ग्रंथ खण्डित हो गया और परवर्ती आचार्यों द्वारा सम्पूर्ण ग्रंथ * प्रथम तल, १६/६, स्वामी रामतीर्थ नगर, नई दिल्ली खण्ड १५, अंक ४ (मार्च, ६०) ११ For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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