Book Title: Tulsi Prajna 1990 03
Author(s): Nathmal Tatia
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 20
________________ है। इस प्रकार का प्रतिपादन अनेकान्त का आश्रय लिये बिना सम्भव नहीं है। क्योंकि युक्ति की अपेक्षा से ही भेषज श्रेष्ठ औषध हो सकती है। यदि युक्ति की अपेक्षा न रखी जाय तो वही भेषज रोगी का प्राण हरण कर सकती है। जैसा कि आजकल प्रायः देखा जाता है कि आधुनिक चिकित्सा विज्ञान (एलोपैथी) के इंजेक्शनों के प्रयोग में बरती गई जरा-सी असावधानी रोगी का प्राणान्त कर देती है । वही इंजेक्शन अच्छी तरह विचार कर प्रयोग किये जाने पर जीवनदायी बन जाता है। इसी प्रकार यदि अनुष्य को संखिया, कुचला, धत्तूर आदि विषवर्गीय किसी द्रव्य का सेवन बिना संस्कार किए ही कराया जाता है तो निश्चय ही वह काल का ग्रास बन सकता है, किन्तु वही विष जब शुद्ध और संस्कारित करके मात्रापूर्वक औषध रूप में प्रयुक्त किया जाता है तो उसके द्वारा अनेक भीषण व्याधियों का नाश किया जाता है । आधुनिक चिकित्सा वैज्ञानिक ' परीक्षणों ने आमवात (गठियावाय) की व्याधि में विधिपूर्वक उचित मात्रा में सर्प विष" का प्रयोग उपयोगी एवं लाभप्रद सिद्ध किया है । इस प्रकार विषत्व की अपेक्षा से वह विष है, किन्तु भेषजत्व की अपेक्षा से वही तीक्ष्ण विष जीवनदायी श्रेष्ठ औषधि हैं। इस प्रकार आयुर्वेद-शास्त्र में ऐसे अनेक प्रकरण एवं उद्धरण विद्यमान हैं जो अनेकान्त का आश्रय लेकर प्रतिपादित किए गए हैं । इससे न केवल उस विषय की दुरुहता की समाप्ति हुई है, अपितु अनेक शंकाओं का अनायास ही निरसन हो गया है। अतः यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि ऐसा करने से आयुर्वेद-शास्त्र के दृष्टिकोण में पर्याप्त व्यापकता आई है और वह पूर्ण उदारतावादी कहलाने का अधिकारी है। जीवन विज्ञान के संदर्भ में मानव-प्रकृति एवं आरोग्य-मूलक सिद्धान्तों का प्रतिपादन आयुर्वेदशास्त्र की अपनी मौलिक विशेषता है। उसमें यदि संकुचित दृष्टिकोण एवं दुराग्रहों का आश्रय लिया जाता तो निश्चय ही आयुर्वेद-शास्त्र की शाश्वतता और लोकोपकारी भावना का लोप हो जाता, किन्तु ऐसा नहीं है । अनेकान्त ने आयुर्वेद को कितना सहिष्णु और व्यापक दृष्टिकोण वाला बनाया है उसका सहज आभास उन स्थलों से मिलता है जहां अन्य ऋषियों के भिन्न दृष्टिकोण-मूलक वचनों को भी समादृत किया गया है। ". 000 सम्यग्दष्टि विज्जारहमारूढो मणोरहपहेसु भमइ जो चेदा। सो जिणणाणपहावी सम्माविट्ठी मुणेदवो ॥ -समयसार जो जीव विद्यारूपी रथ में आरूढ़ होकर मन रूपी रथ के मार्ग पर चलता है वह जिनेश्वर के ज्ञान की प्रभावना करने वाला सम्यग्दृष्टि है। तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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