Book Title: Tulsi Prajna 1990 03
Author(s): Nathmal Tatia
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 14
________________ कालिदास ने किया है, वह सचमुच आश्चर्यकारी है उद्गीण दर्भ कवला मृगी, परित्यक्ता नर्तना मयूरी। अपसृत पाण्डुपत्रा मुञ्चन्ति अश्रु इव लता ॥ आधुनिक कवियों ने अध्यात्मवाद को छायावाद के नाम से प्रस्तुत किया है। 'मैं तुम्हारी बीन भी हूं, मैं तुम्हारी रागिणी'....... ... ..महादेवी की इन पंक्तियों में अध्यात्म साकार हो बोल रहा है । कवि निराला ने इसी बात को बिल्कुल उलटकर यों कहा है... 'तुम तुंग हिमाचल शृंग और मैं चंचल गति सुरसरिता'। सचमुच उनके द्वारा आत्मा और परमात्मा के भेद की यह कितनी सुन्दर अभिव्यञ्जना है । आधुनिक कवियों ने अभिधा की अपेक्षा व्यञ्जना और लक्षणा का प्रयोग अधिक किया है। पर हमारे प्राचीन संस्कृत कवि भी इस कला में सिद्धहस्त थे। अंगिरस ऋषि से शंकर के साथ अपने संबंध की चर्चा सुन पार्वती की जो मनः स्थिति हुई उसका जिक्र कांतपदावलि में करते हुए कवि ने कहा है एवं वादिनि देवौं पार्वे पितुरघोमुखी। लीला कमल पत्राणि गणयामास पार्वती।। साहित्य की आत्मा उसका अर्थ-गौरव और शरीर पद-लालित्य व अलंकार हैं। इनकी समन्विति में भारवि, दंडी और कालिदास अद्वितीय रूप से सफल रहे हैं। माघकवि के एक ही महाकाव्य शिशुपाल वध में उक्त सभी विशेषताएं प्रकृष्टता के साथ देखी जा सकती हैं। आधुनिक कवि संस्कृत कवियों की अपेक्षा सामाजिक व राष्ट्रीय चेतना के जागरण में आगे हैं । उन्होंने स्वतंत्रता, सुकाल, स्त्रीशिक्षा, छुआछूत-निवारण आदि विषयों के सन्दर्भ में खुलकर लिखा है। इसलिए आत्मबलिदान, कर्त्तव्यपालन और स्वार्थ त्याग का स्वर तेजी से उभरा है। कुछ साहित्यकारों ने सामंतवाद और पूंजीवाद को भी ललकारा है । वे श्रमिकों और कृषकों के पक्षधर बने । उन्होंने सर्वात्मवाद, समन्वयावाद ओर मानवतावाद के आदर्शों की प्रतिष्ठा की। दोनों साहित्यधाराओं के समीक्षात्मक अध्ययन से हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि हिंदी साहित्य में जहां सामयिक मूल्यों की चर्चा अधिक है, वहां संस्कृत साहित्य शाश्वत सत्यों का ज्योतिदीप है । हिंदी साहित्य संस्कृत साहित्य का चिरऋणी है । यदि त्रिभाषा फार्मूला के तहत संस्कृत साहित्य को उपेक्षित किया गया तो यह उस साहित्य की अवमानता नहीं, भारतीय संस्कृति की अवमानना है। क्योंकि हमारी संस्कृति के बीज प्राकृत और संस्कृत जैसी प्राच्य भाषाओं में ही विद्यमान है। तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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