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साहित्य के अनुकरण प्रधान । वेद, उपनिषद्, आरण्यक, ब्राह्मण, पुराण व स्मृति साहित्य में संकलन की बनिस्पत स्वतंत्रचिंतन का अंश अधिक है। मध्यकाल (ई. १३७५---१७००)
यह काल भक्तिकाल एवं पूर्वमध्यकाल के नाम से विख्यात है। इस काल के कृष्ण एवं राम भक्ति काव्य भागवत व रामायण के ही उपजीवी हैं। कबीर, रहीम, तुलसी, सूर, जायसी, रसखान एवं मीरा आदि इस युग के प्रमुख संतकवि हुए हैं। कबीर का साहित्य वेदांत, योगदर्शन, बौद्धदर्शन एवं तंत्र साहित्य से प्रभावित है। कबीर की अनेक साखियां संस्कृत के नीतिवाक्यों एवं सूक्तिमय श्लोकों का ही हिंदी रूपान्तरण है। कबीर ने शंकर के अद्वैत दर्शन को जनभोग्य बनाने का एक सुन्दर उपक्रम किया है। उनकी एक साखी इस बात की साक्षी है--
जल में कुंभ कुंभ में जल है, भीतर बाहर पानी । इंटा कुंभ जल जलहि समाना, यह तत कह्यो गियानी ॥ सूर की रचनाएं सांख्य योग एवं वैष्णव तत्रों से प्रभावित हैं।
सूर की रचनाओं में सांख्ययोग और वैष्णवतंत्र की छाया है । वल्लभाचार्य की कृतियां शुद्धाद्वैत पर आधृत हैं। हिंदी की अपेक्षा संस्कृत साहित्य में कहीं अधिक रमणीयता व बेधकता है। जायसी के 'वन-वन विरछि न चंदन होइ, तन-तन विरह न उपने सोई' एवं कबीर के लालन की नहीं बोरियां' में वह उत्कृष्टता नहीं आ पाई है जो 'शैले-शैले न माणिक्यं मौक्तिकं न गजे-गजे' में है । हिंदी साहित्य में कृष्ण भक्ति के अंतर्गत राधा की परिकल्पना को सर्वथा नवीन माना जाता है। पर वस्तुतः उसकी उत्प्रेरिका भागवत की गोपी ही है। इसी प्रकार नन्ददास का रुक्मिणी मंगल भी भागवत के रुक्मिणी उद्धार की ही प्रतिच्छाया है। रामचरितमानस के रचयिता तुलसीदास ने एक ही नवीनता की है कि उन्होंने राम को पुरुषोत्तम की अपेक्षा परमब्रह्म के रूप में प्रतिष्ठित कर दिया है। यह भक्तियुग का स्पष्ट प्रभाव है। उनकी इस परिकल्पना की अपेक्षा वाल्मीकि का कथन अधिक व्यावहारिक, मानवीय प्रतीत होता है। तुलसी के 'पार्वतीमंगल', केशव की 'चन्द्रिका' और नन्द की 'विरह मंजरी' के पीछे कालिदास और बाण का ही कवित्व बोल रहा है। भाव, भाषा और शैली की दृष्टि से संस्कृतकवि हिंदी कवियों की अपेक्षा कहीं अधिक आगे हैं । रीतिकाल (ई० १७००-१६००)
इसे उत्तरमध्यकाल भी कहा जाता है । इस काल के साहित्यकारों ने श्रृंगार रस को प्रधान बना साहित्यमंदिर को सुसज्जित किया। पर वे कभी कालिदास, हाल, भर्तृहरि और जयदेव की तुलना में नहीं आ सके। स्वयं हिन्दी के कवियों ने उनका उत्कीर्तन किया हैकथा संस्कृत सुनि कछु थोरी।
भाषा वांचि चौपई जोरी॥
तुलसी प्रज्ञा
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