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दीपिकनियुक्तिश्च अ. १
नवतत्वनिरूपणम् १५ सति भावजिन-तद्गुणं वा स्मारयितुं समर्था स्यात् इति मावजिनात्मनः तत्रावाहनं-स्थापनञ्च जिनाज्ञाबाह्यम्-प्रवचनविरुद्धं कर्तुं न योग्यम् ।
सर्वथा कुप्रावचनिकद्रव्यावश्यकवत् प्रतिमापूजनं कुर्वन्तः कारयन्तश्च मिथ्यादृष्टित्वमेव प्राप्नुवन्ति । न तु सम्यक्त्वमिति-"अनुयोगद्वारोक्तटीकारीत्याऽत्रापि नामस्थापनानिक्षेपस्य तुच्छत्वाद् वस्तुसाधकत्वं संभवतीति बोध्यम् ॥ सूत्र २ ॥
मूलसूत्रम्-"समणायाऽमणाया" सूत्र ३ छाया-समनस्काऽमनस्काः -३
दीपिका—पूर्वसूत्रे तावद् लक्षणतो जीवस्वरूपं निरूपितम् सम्प्रति विभागादितो जीवस्य विशेषस्वरूपं प्रतिपादयितुमाह
'समणायाऽमणाया' इति । संसारिणो जीवः संक्षेपतो द्विविधा समनस्काः-अमनस्काश्च । तत्र-मनस्तावद् द्विविधं वर्तते, द्रव्यमनः-भाक्मनश्च । तत्र पुद्गलविपाकिकर्मोदयापेक्षया द्रव्य मनो व्यपदिश्यते, वीर्यान्तरायनोइन्द्रियावरणक्षयोपशमाऽपेक्षयाऽमनो विशुद्धत्वं भावमन उच्यते
एवंविधेन द्रव्यमनसा-भावमनसा च युक्ता जीवाः समनस्का उच्यन्ते, तथाविधेन न होने के कारण भावजिन का अथवा उनके गुण का स्मरण कैसे करा सकती है ? अतएव उसमें भावजिन का आह्वान एवं स्थापन करना जिनाज्ञा से बाह्य है और प्रवचन से विरुद्ध है। ऐसा करना योग्य नहीं ।
सर्वथा कुप्रावचनिकों के द्रव्यावश्यक के समान प्रतिमा का पूजन करने वाले और करानेवाले मिथ्या दृष्टिपन ही प्राप्त करते हैं । सम्यक्त्व को प्राप्त नहीं करते। अनुयोगद्वार में कथित टीका के अनुसार यहाँ भी नाम और स्थापना निक्षेप तुच्छ होने के कारण वस्तु के साधक नहीं हो सकते; ऐसा समझ लेना चाहिए ॥२॥
मूलसूत्र का अर्थ --संसारी जीव दो प्रकार के हैं-समनस्क और अमनस्क ॥३॥ तत्त्वार्थदीपिकार्थ-- 'समणाया' इत्यादि ।३।
पूर्व सूत्र में जीव का लक्षण-निरूपण किया गया है । अब भेद आदि के द्वारा जीव के विशेष स्वरूप का प्रतिपादन करने के लिए कहते हैं-'समणाया' इत्यादि । संसारी जीव संक्षेप से दो प्रकार है-समनस्क और अमनस्क ।
मन दो प्रकार का है-द्रव्यमन और भावमन । पुद्गलविपाकी कर्म के उदय की अपेक्षा से द्रव्यमन कहलाता है और वीर्यान्तराय तथा नोइन्द्रियावरण कर्म के क्षयोपशम की अपेक्षा से आत्मा की विशुद्धता को भावमन कहते हैं ।