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अनेकान्तिक दृष्टि का विकास पूर्ण हैं क्योंकि ये सभी मन्तव्य मूलतत्व के एक-एक अंश का ही निरूपण करते हैं। वस्तुतः ये सभी मन्तव्य एकान्तिक होने के कारण त्याज्य हैं। यदि विश्व के मूल में किसी चेतन्य-स्वरूप परमात्मतत्त्व को माना जाय तो यह एक अन्त होता है। इसी प्रकार यदि विश्व के मूलतत्त्व के रूप में केवल जड़तत्त्वों को स्वीकार किया जाय तो यह भी एक अन्त हो होगा। अतएव इनमें से किसी का भी समर्थन करना ठीक नहीं है। संयुत्तनिकाय में कहा गया है-"भिक्षुओं! जो जीव है वही शरीर है अथवा जीव दूसरा है और शरीर दूसरा है। ऐसी मिथ्या दृष्टि होने से ब्रह्मचर्यवास नहीं हो सकता है। भिक्षुओं! इन दोनों अन्तों को छोड़ बुद्ध मध्यम मार्ग से धर्म का उपदेश करते हैं। क्योंकि उनको ऐसा प्रतीत हआ था कि अपरिवर्तिष्णु आत्मा मरकर पुनर्जन्म लेती है और संसरण करती है ऐसा मानने पर शाश्वतवाद होता है; और चार महाभूतों के संयोग से चेतन आत्मा उत्पन्न होती है और उनके संयोग के नष्ट होते ही वह भी उच्छिन्न, विनष्ट और लुप्त हो जाती है। ऐसा मानने पर उच्छेदवाद होता है। इस प्रकार ये दोनों विचारधारायें यथार्थता के एक-एक पार्श्व का ही निरूपण करती हैं क्योंकि आत्मा शरीर से न तो अत्यन्त भिन्न ही है और न तो अत्यन्त अभिन्न ही। अतएव आत्मा न तो सर्वथा शाश्वत ही है और न तो सर्वथा अशाश्वत । वस्तुतः ये दोनों ही दृष्टिकोण एकांगी हैं। अतः इन दोनों अन्तों को छोड़ देना ही न्यायसंगत है ।
इस प्रकार बुद्ध तत्कालीन एकान्त रूप नाना मतवादों का निषेध करके उनमें समन्वय का प्रयास अवश्य कर रहे थे तथापि उन्होंने अपनी मान्यता के अनुरूप कुछ भी विधायक रूप से नहीं कहा। उसका एकमात्र कारण यही है कि कुछ भी विधायक रूप से कहने पर उनको किसी एक मतवाद में फंस जाने का भय था। इसीलिए वे सभी प्रश्नों का उत्तर निषेध रूप से देकर अपने “वाद" को कुछ भी नाम देना पसन्द नहीं
१. "तं जीवं तं शरीरं" इति वा भिक्खो, दिदिया सति ब्रह्मचरियवासो न
होति । “अझं जीवं अनं शरीरं' इति वा, भिक्खवे, दिट्ठिया सति ब्रह्मचरियवासो न होति । एते ते, भिक्खने, उभो अन्ते अनुपगम्य मज्झेन तथागतो धम्म देसेति ।"
--संयुत्तनिकाय पालि भाग २, १२-३६ (दुतियअविज्जापच्चयसुत्तं)
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