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अनेकान्तिक दृष्टि का विकास
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प्रश्नों का उत्तर देकर यह परिपुष्ट किया गया है कि जीव और शरीर में भेद भी है और अभेद भी है। वस्तुतः आत्मा को शरीर से न तो अत्यन्त भिन्न माना जा सकता है और न तो अत्यन्त अभिन्न ही । अतः आत्माशरीर में भेदाभेद सम्बन्ध है ।
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इस प्रकार जैन विचारक तत्कालीन नाना प्रश्नों के उत्तर विधायक रूप से देते थे । उनके इसी विधायक दृष्टिकोण का परिणाम यह हुआ कि उन्हें वस्तुओं में नित्यत्व - अनित्यत्व, एकत्व - अनेकत्व, भेदत्व - अभेदत्व आदि अनेक पक्षों को स्वीकार करना पड़ा । तत्पश्चात् वस्तुओं की अनन्त धर्मात्मकता और अनेकान्तवाद जैसे सिद्धान्तों की स्थापना हुई । जिनका विवेचन हम आगे प्रस्तुत करेंगे ।
(२) वस्तुओं की अनन्तधर्मात्मकता
जैन दर्शन का प्रतिपाद्य विषय है वस्तु-स्वरूप की अनेकान्तात्मकता । उसके अनुसार वस्तु अनेकान्त स्वरूप है । अनेकान्त शब्द का आशय है अनेक अन्तों वाला (अनेक + अन्त) | अनेक का अर्थ है एक से अधिक और अन्त का अर्थ है धर्म | इस प्रकार अनेकान्त का अर्थ हुआ वस्तु का एक से अधिक यानी अनन्त धर्मात्मक होना- "अनन्तधर्मात्मकं वस्तु" ।
वस्तु का स्वरूप विराट् है । वह अनन्त धर्मों, अनन्त गुणों और अनन्त पर्यायों का अखण्ड - पिण्ड है । उसमें अवस्थित उन अनन्त धर्मों में से समय-समय पर व्यक्ति अपने प्रकथन के उद्देश्य से अपेक्षित धर्मों को हो ग्रहण करता है, जबकि उसमें उसके अतिरिक्त और भी अनेक धर्म विद्यमान हैं । परन्तु इससे यह नहीं समझना चाहिए कि व्यक्ति अपनी स्वेच्छा से उस वस्तु पर स्वेच्छित धर्म का आरोपण करता है। अपितु वस्तुएँ स्व-स्वरूप से हो अनन्तधर्मात्मक होती हैं और यही कारण है कि वस्तुएँ अनन्त धर्मात्मक कहलाती हैं। डॉ० सागरमल जैन का कहना है कि "वस्तुतत्त्व मात्र सीमित लक्षणों का पुंज नहीं है, जैन दार्शनिकों ने उसे अनन्त धर्मात्मक कहा है। यदि हम वस्तु के भावात्मक गुण धर्मों पर ही विचार करें तो उनकी संख्या भी अनेक होगो । उदाहरणार्थ गुलाब का फूल गन्ध की दृष्टि से सुगन्धित है, तो वर्ण की दृष्टि से किसी एक या एकाधिक विशिष्ट रंगों से युक्त है, स्पर्श की दृष्टि से उसकी पंखुड़ियाँ कोमल हैं, किन्तु डंठल तीक्ष्ण है, उसमें एक विशिष्ट स्वाद है, आदि-आदि । यह
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