Book Title: Syadvada aur Saptabhanginay
Author(s): Bhikhariram Yadav
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 245
________________ जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय की आधुनिक व्याख्या जैन तर्कशास्त्र की यह मान्यता है कि जिस तरह वस्तु में भावात्मक धर्म रहते हैं, उसी तरह वस्तु में अभावात्मक धर्म भी रहते हैं । वस्तु में जो सत्त्व धर्म हैं वे भावरूप हैं और जो असत्त्व धर्म हैं वे अभाव रूप हैं । इसी भाव रूप धर्म को विधि अर्थात् अस्तित्व और अभावरूप धर्म को प्रतिषेध अर्थात् नास्तित्व कहते हैं : १९८ " सदसदात्मकस्य वस्तुनो यः सदंशः- भावरूपः स विधिरित्यर्थः । सदसदात्मकस्य वस्तुनो योऽसदंश: - अभावरूपः स प्रतिषेध इति ।" " वस्तुतः ये अस्तित्व और नास्तित्व एक ही वस्तु के भिन्न-भिन्न धर्म हैं: जो अविनाभाव से प्रत्येक वस्तु में विद्यमान रहते हैं । कहा भी गया हैं अस्तित्वं प्रतिषेध्येनाविनाभाव्येकधर्मिणी । विशेषणत्वात् साधर्म्यं यथा भेदविवक्षया ॥ १७ ॥ नास्तित्वं प्रतिषेध्येनाविनाभाव्येकधर्मणी । विशेषणत्वाद्वैधम्यं यथाऽभेदविवक्षया ॥ १८ ॥ अर्थात् वस्तु का जो अस्तित्व धर्म है उसका अविनाभावी नास्तित्व धर्म है । इसी प्रकार वस्तु का जो नास्तित्व धर्म है उसका अविनाभावी अस्तित्व धर्म है । इस प्रकार अस्तित्व के बिना नास्तित्व और नास्तित्व के बिना अस्तित्व की कोई सत्ता ही नहीं है । कहने का तात्पर्य यह है कि अस्तित्व और नास्तित्व दो ऐसे धर्म हैं जो प्रत्येक वस्तु में अविनाभाव से विद्यमान रहते हैं । सप्तभङ्गी के अस्तित्व और नास्तित्व रूप दोनों भङ्गों में इन्हीं धर्मों का मुख्यता और गौणता से विवेचन किया जाता है। ये दोनों एक दूसरे के विरोधी या निषेधक नहीं हैं । अस्तित्व धर्म दूसरे तो नास्तित्व धर्म दूसरे हैं । इसीलिए इनमें अविरोध सिद्ध होता है । स्याद्वादमंजरी में कहा गया है, "जिस प्रकार स्व-रूपादि से अस्तित्व धर्म का सद्भाव अनुभव से सिद्ध है, उसी प्रकार पर रूपादि के अभाव से नास्तित्व धर्म का सद्भाव भी अनुभव से सिद्ध है । वस्तु का सर्वथा अर्थात् स्व-रूप और पररूप से अस्तित्व ही वस्तु का स्वरूप नहीं है; क्योंकि जिस प्रकार स्व-रूप से अस्तित्व वस्तु का स्वरूप होता है, उसी प्रकार पर रूप से भी अस्तित्व वस्तु का धर्म बन जायेगा । वस्तु का सर्वथा अर्थात् स्व-रूप और पर-रूप. १. प्रमाणनयतत्त्वालोक, ३ : ५६-५७ । २. आप्तमीमांसा, १ : १७, १८ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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