Book Title: Syadvada aur Saptabhanginay
Author(s): Bhikhariram Yadav
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 261
________________ २१४ जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय की आधुनिक व्याख्या लुकासीविज़ के तृतीय सत्यता मूल्य से कोई साम्यता नहीं बैठती है; क्योंकि भविष्यकालीन घटना में कोई ऐसा विकल्प नहीं है, जो वाणी के द्वारा अकथ्य हो। वह घटना या तो घटेगी या नहीं घटेगी। इनमें से कोई एक ही परिणाम प्राप्त होगा जिसे वाणी के द्वारा कहना तो सम्भव ही है, इसके साथ ही वह घटना घटेगी या नहीं घटेगी इन परिणामों को तो कहना भी संभव ही है। यद्यपि उसका परिणाम क्या होगा यह कहना असंभव है पर युगपततः कथन जैसी अशक्यता उसमें नहीं है । अवक्तव्य के युगपत् धर्म वस्तु में सर्वदा विद्यमान हैं, उनमें किसी एक के न रहने की सम्भावना नही है। परन्तु उन धर्मों को एक साथ अभिव्यक्त करने की असमर्थता अवश्य है। अतः लुकासीविज़ के तृतीय सत्यता मल्य को जैनदर्शन के अवक्तव्य के रूप में ग्रहण नहीं किया जा सकता है। (६) यदि सप्तभङ्गी को त्रि-मूल्यात्मक मान भी लिया जाय तो शेष चार भङ्गों का कोई महत्त्व नहीं रह जायेगा । वे मात्र उनकी व्याख्या तक ही सीमित रहेंगे। जबकि जैन दर्शन में उन भङ्गों को भी समान मूल्यवाला माना गया है इसलिए सप्तभङ्गी को त्रि-मूल्यात्मक मानना ठीक नहीं है । (७) एक सबसे बड़ी कठिनाई यह है कि जैन न्याय में प्रमाणनय, नय और दुर्नय को स्वतन्त्र रूप से स्वीकार नहीं किया गया है । जैन न्याय में तो केवल नय की ही कल्पना की गयी है। वही नय, जब स्यात् पद से विशेषित या सापेक्ष होता है तब सुनय और जब निरपेक्ष होता है तब दुर्नय हो जाता है । वस्तुतः सुनय, नय और दुर्नय की पृथक्-पृथक् कल्पना करना उचित नहीं है। अतः जैन सप्तभङ्गी को त्रि-मूल्यात्मक नहीं कहा जा सकता है। ___ इस प्रकार जैन तर्कशास्त्र को त्रि-मूल्यात्मक मानने पर अनेक प्रकार की कठिनाइयाँ उत्पन्न होती हैं। यद्यपि ये कठिनाइयाँ प्रो० पाण्डेय को भी प्रतीत हुई थी क्योंकि उन्होंने लिखा है-स्याद्वाद की यह व्याख्या भी स्याद्वादी है, क्योंकि सम्पूर्ण सत्यता इस व्याख्या में भी नहीं होती है । यदि हम क को अनभिलाप्यता-मूल्य प्रदान करें तो प्रत्येक भंग की समुचित व्याख्या हो जाती है। किन्तु, यदि हम क को सत्यता मूल्य प्रदान करें तो क अर्थात् द्वितीय यंत्र असत्य सिद्ध हो जाता है। अतः लगता है कि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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