Book Title: Syadvada aur Saptabhanginay
Author(s): Bhikhariram Yadav
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

View full book text
Previous | Next

Page 262
________________ उपसंहार २१५ स्याद्वाद का प्रमाणीकरण अनभिलाप्यता तर्कशास्त्र के आधार पर ही हो सकता है। सत्यता का प्ररूपक कोई वाक्य नहीं है. क्योंकि वह सत्यता केवल ज्ञान से लभ्य है और केवल ज्ञान स्याद्वाद का विषय नहीं है। अतः अनभिलाप्यतातर्कशास्त्र स्याद्वाद की सही व्याख्या करता है और स्याद्वाद की व्याख्या का उद्देश्य सम्पूर्ण सत्यता के प्रति व्यापक ज्ञान की व्याख्या नहीं है। परन्तु, प्रश्न है कि लुकासीविज के तर्कशास्त्र में तो साधारण वाक्यों की भी सत्यता का प्रतिपादन होता है और स्याद्वाद में वैसा कोई वाक्य ही नहीं है, तो फिर लुकासीविज़ के तर्कशास्त्र से जैन तर्कशास्त्र की समकक्षता कहाँ हुई ? यह प्रश्न कुछ हद तक समीचीन भी है; क्योंकि जैन तर्कशास्त्र निषेध को सत्यता फलनात्मक सम्बन्ध नहीं मानता है, जबकि लुकासीविज़ का तर्कशास्त्र ऐसा मानता है। अतः दोनों में कुछ अन्तर भी है और इस अन्तर के कारण क तथा ५ क दोनों जैन तर्कशास्त्र में किन्हीं परिस्थितियों में सत्य भी हो सकते हैं ।' इस प्रकार स्पष्ट है कि जैन तर्कशास्त्र को त्रि-मूल्यात्मक नहीं कहा जा सकता है। इसके साथ ही क अर्थात् अस्ति भंग को भी अनभिलाप्य नहीं कहा जा सकता है, क्योंकि वह तो अभिलाप्य है । वह वस्तु के अस्तित्व धर्म का कथन तो करता ही है। हाँ, वस्तु को अनभिलाप्य कहा जाय तो वह दूसरी बात है। किन्तु, अस्तिभंग को अनभिलाप्य नहीं कहा जा सकता है। वस्तुतः अस्ति भंग को अनभिलाप्य मानकर भी सप्तभंगी की व्याख्या संभव नहीं है। इस प्रकार उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट हो गया कि जैन-सप्तभंगी न तो द्वि-मूल्यात्मक है और न तो त्रि-मूल्यात्मक ही । किन्तु, मूल प्रश्न यह है कि क्या इसे सप्त मूल्यात्मक या बहु-मूल्यात्मक कहा जा सकता है ? यद्यपि आधुनिक तर्कशास्त्र में अभी तक कोई भी ऐसा आदर्श सिद्धान्त विकसित नहीं हआ है, जो कथन की सप्तमूल्यात्मकता को प्रकाशित करे। परन्त, जैन-आचार्यों ने सप्तभंगी के सभी भंगों को एक दूसरे से स्वतन्त्र और नवीन तथ्यों का प्रकाशक माना है। सप्तभंगी का प्रत्येक भंग वस्तु-स्वरूप के सम्बन्ध में नवीन तथ्यों का प्रकाशन करता है। इसलिए उसके प्रत्येक भंग का अपना स्वतन्त्र स्थान और मूल्य है। वस्तुतः प्रत्येक भग की अर्थोद्भावन में इस विलक्षणता के आधार पर ही सप्तभंगी को सप्तमूल्यात्मक १. दार्शनिक त्रैमासिक, पृ० १७८, वर्ष २०, अंक ४, जुलाई १९७५ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278