Book Title: Syadvada aur Saptabhanginay
Author(s): Bhikhariram Yadav
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 226
________________ समकालीन तर्कशास्त्रों के सन्दर्भ में सप्तभंगी : एक मूल्यांकन १७९ (६) ~PA (PA~P) जो कि I है, (७) (PA~P) A (PA ~P) जो कि I है । आगे उन्होंने यह भी स्पष्ट किया है कि इस सारणी की प्रामाणिकता त्रि-मूल्यीय तर्कशास्त्र के आधार पर सिद्ध की जा सकती है। उन्होंने लिखा है कि यदि हम नयों के तर्कशास्त्र को व्यवस्थित करें तो यह लुकासीविज़ के त्रि-मूल्यीय तर्कशास्त्र से प्रमाणित हो जाता है; क्योंकि (जिस प्रकार लुकासीविज़ का त्रि-मूल्यीय तर्कशास्त्र मध्यपद परिहार के नियम और विरोधिता के नियम को नहीं मानता है। उसी प्रकार सप्तभङ्गी मध्यपद परिहार के नियम का खण्डन करती है; क्योंकि Pv~P जो कि आकारिक तर्कशास्त्र के नियम के अनुसार टाटालाजी नहीं है। इसका सत्यता मूल्य T और ~T है (किन्तु जैन सप्तभङ्गी इसे भी टाटालाजी मानती है इसके अनुसार यह भी सत्य ही है)। इसी प्रकार यह विरोधिता के नियम का भी खण्डन करती है। Pv~P जो कि आकारिक तकशास्त्र के नियम के अनुसार असत्य नहीं है लेकिन सत्य है। यह कल्पना करते हैं कि संघटकों के सत्यता मूल्यों के संयोजन का सत्यता-मूल्य असत्य और उनके वैकल्पिक का सत्यता-मूल्य असत्य होता है।' यद्यपि यह सत्य है कि जैन-सप्तभंगी तर्कशास्त्रीय विरोधिता के नियम और मध्यपद परिहार के नियम को नहीं मानती है। यह उसका खण्डन करती है, क्योंकि यह परस्पर विरोधी धर्मों का साथ-साथ रहना संभव मानती है। अर्थात् एक ही वस्तु में सत्, असत्, नित्य, अनित्य आदि परस्पर विरोधी गुण-धर्म अविरुद्ध भाव से विद्यमान रहते हैं, इस कथन को सप्तभंगी स्वीकार करती है। इसलिए सप्तभंगी के अनुसार इन धर्मों पर आश्रित एक ही कथन सत्य और असत्य दोनों हो सकता है। जबकि तर्कशास्त्र इस तथ्य को स्वीकार नहीं कर सकता है। तर्कशास्त्र के व्याघातकता के नियम के अनुसार "अ","ब" और "अ-ब" नहीं हो सकता। जिस वस्तु का अभाव है उसका भाव नहीं हो सकता और जिसका भाव है उसका अभाव नहीं हो सकता। दूसरे शब्दों में, कोई भी वस्तु एक साथ भाव रूप और अभाव रूप दोनों नहीं हो सकती है । इस प्रकार आधुनिक तर्कशास्त्र 1. "Nayavada and Many Valued Logic" 'Seminar on Jain Logic and Philosophy 27th to 30th November 1975, Deytt. of Philosophy, Poona University Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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