Book Title: Syadvada aur Saptabhanginay
Author(s): Bhikhariram Yadav
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 237
________________ १९० जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय की आधुनिक व्याख्या प्रदर्शित करता है जैसेI--a AbAcade Af = 1/6 दूसरे मूल्य, दो में किसी एक अवसर की प्राप्ति की संभावना को अभिव्यक्त करते हैं । जैसे—a AbAcAdaa Ac. इसी प्रकार अन्तिम अवसर इस प्रकार हो जाता है : a ^ Ълслалелі. उपर्युक्त विचार से यह पता चलता है कि "या" के प्रयोग में तीन प्रकार का अर्थ हो सकता है : (१) जहाँ कथन में और का प्रयोग नहीं होता उसे वैकल्पिक तर्कवाक्य कहा जाता है अर्थात् वह वाक्य जिसमें और का प्रयोग न हो, वैकल्पिक तर्कवाक्य कहलाता है । (२) वह जो किसी विशेष को सूचित करे । प्रस्तुत लेख में इस विशेष को एक आल्टरनेट (^) से चिह्नित किया गया है । (३) वह जो निर्विशेष को सूचित करता है । इस लेख में इसे दोहरे आल्टरनेन्ट (^) से सूचित किया गया है । इन दृष्टान्तों का गम्भीरता पूर्वक विचार करने से शब्द नय का अच्छा विस्तार हो सकता है । यहाँ वैकल्पिक के दो अर्थ हो सकते हैं (१) ग्राहक - वह जो और के अर्थ को ग्रहण करता है । (२) वियोजक - वह जो और के अर्थ का निषेध करता है यहाँ वियोजक के भी दो अर्थ हो सकते हैं (क) पूर्ण में से एक विशेष को ग्रहण करना । (ख) पूर्ण में से किसी एक को ग्रहण करना । प्रस्तुत लेख में पूर्ण में से एक विशेष को ग्रहण करने वाले को एक आल्टरनेन्ट (1) से दर्शाया गया है । यह आल्टरनेन्ट निर्विशेष को सूचित करता है और किसी एक को ग्रहण करने वाले को दो आल्टरनेन्ट (A) से प्रदर्शित किया गया है। वह आल्टरनेन्ट विशेष वैकल्पिक को सूचित करता है । किन्तु " या " ( वैकल्पिक ) को जब वियोजक अर्थ में लिया जाता है तो वहाँ उसे ग्राहक अर्थ में नहीं लेना चाहिए। जैसे वह बम्बई में है या Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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