Book Title: Syadvada aur Saptabhanginay
Author(s): Bhikhariram Yadav
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 228
________________ समकालीन तर्कशास्त्रों के सन्दर्भ में सप्तभंगो : एक मूल्यांकन १८१ तीसरा कारण यह है कि जो प्रतीक प्रथम भंग को दिया जाय । पुनः उसी प्रतीक को दूसरे भङ्ग को भी देकर उसका निषेध किया जाय और प्रथम तथा द्वितीय दोनों भङ्गों को सत्य कहा जाय तो यह बात भी आत्मविरोधी प्रतीत होती है, क्योंकि यह तर्कशास्त्र के नियम के विपरीत तो है ही। साथ ही यह जैन-विचारणा को भी मान्य नहीं है। यद्यपि सप्तभङ्गी भी इसी तरह के नियम का प्रयोग करती है। परन्तु वह निषेध के रूप में इतर वस्तु का कथन करती है उसमें भी अस्पष्टता अवश्य है। परन्तु उस अस्पष्टता को पुनः-पुनः दोहराना उचित नहीं है। इसलिए दूसरे भंग के लिए किसी अन्य प्रतीक का प्रयोग करके उसके मूल उद्देश्य को स्पष्ट करना चाहिए। जिसका उपर्युक्त प्रतीकीकरण में अभाव है। इसलिए उक्त व्याख्या युक्तिसंगत नहीं है। इसी प्रकार सप्तभंगी का एक तीसरा प्रारूप भी प्रस्तुत किया गया है। यद्यपि ये तीनों प्रारूप एक जैसे ही हैं किन्तु इसके प्रमाणीकरण में भिन्नभिन्न नियमों का प्रयोग किया गया है। इसलिए इन तीनों हो प्रतीकात्मक प्रारूपों का विवेचन अपेक्षित है। इस प्रतीकात्मक स्वरूप को अभिव्यक्त करते हुए प्रो० पाण्डेय ने कहा है कि स्याद्वाद नयवाद का एक प्रकार है और प्रमाणसप्तभङ्गी ही नयसप्तभंगी है। स्याद्वाद एक सत्य कथन है और प्रमाणसप्तभङ्गो सात सत्य कथनों को सारणी है जो निषेध, संयोग और विकल्प की क्रियाओं के द्वारा एक विधेयात्मक कथन से बनी है। उदाहरणार्थ हमें विचार करना चाहिए; यदि स्याद्वाद एक सत्य कथन है तो प्रमाणसप्तभङ्गी निम्नलिखित रूप में बनेगी (१) P ( P की अभिव्यक्ति ) (२) -P ( P का निषेध) (३) PV_P ( P और -P का वैकल्पिक ) (४) P-P ( P और-P का संयोग) (५) P• ( P..-P) ( पहले और चौथे का संयोग) (६) -P. ( P.-P) ( दूसरे और चौथे का संयोग) (७) ( PV-P ). ( PP ) तीसरे और चौथे का संयोग) तत्पश्चात् उन्होंने उक्त प्रतीकीकरण को सत्य साबित करने के लिए द्वि-मूल्यीय तर्कशास्त्र का सहारा लिया है। उन्होंने कहा है-“कल्पना कीजिए कि P एक कथन के लिए प्रयुक्त होता है कि "गायें सफेद हैं" । अब Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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