Book Title: Syadvada aur Saptabhanginay
Author(s): Bhikhariram Yadav
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 194
________________ जैन न्याय में सप्तभंगी १४७ ७. स्यादस्तिनास्ति चावक्तव्य-कथंचित् है, नहीं है और अवक्तव्य है। अब प्रश्न यह है कि अवक्तव्य भंग को सप्तभंगी के क्रम में कौन सा स्थान प्राप्त है तृतीय या चतुर्थ। ऐसी शंका इसलिए उत्पन्न होती है कि जैन ग्रन्थों में अवक्तव्य को किसी एक निश्चित स्थान पर नहीं रखा गया है । जहाँ आचार्य कुन्दकुन्द अवक्तव्य को तीसरे स्थान पर प्रयुक्त करते हैं वहीं पंचास्तिकाय में उसे चतुर्थ स्थान पर रखा गया है। अकलंक ने तो उसे दोनों ही स्थानों पर प्रयुक्त किया है। इसी प्रकार तत्त्वार्थाधिगम सूत्र और विशेषावश्यकभाष्य में प्रथमक्रम में तो आप्तमीमांसा, तत्त्वार्थवातिक, प्रमेयकमलमार्तण्ड, प्रमाणनयतत्त्वालोकालंकार, स्याद्वादमंजरी, सप्तभंगीतरंगिणी में द्वितीय क्रम का अनुसरण किया गया है। वस्तुतः जब उसके स्थान के विषय में इतना विभेद है तो किसको उचित माना जाय ? यह समस्या उत्पन्न हो जाती है। जैन आचार्यों के अनुसार अवक्तव्य भंग के अर्थ पर ही ध्यान देने से उक्त समस्या का भी समाधान हो जाता है। उनके अनुसार अवक्तव्य भंग के दो अर्थ होते हैं-एक तो शब्द की असामर्थ्य के कारण वस्तु के अनन्तधर्मी स्वरूप को वचनागोचर, अतएव अवक्तव्य कहना; और दूसरे विवक्षित सप्तभंगी में प्रथम और द्वितीय भंगों में युगपत् कह सकने की सामर्थ्य न होने के कारण अवक्तव्य कहना। पहले प्रकार में वह एक व्यापक रूप है जो वस्तु के सामान्य पूर्णरूप पर लागू होता है और दूसरा प्रकार विवक्षित दो धर्मों को युगपत् न कहने की दृष्टि से होने के कारण वह एक विकल्प के रूप में सामने आता है अर्थात् वस्तु का एक रूप अवक्तव्य भी है और एक रूप वक्तव्य भी। जो शेष धर्मों के द्वारा प्रतिपादित होता है । यहाँ तक कि "अवक्तव्य" शब्द के द्वारा भी उसी का स्पर्श होता है। दो धर्मों को युगपत् न कह सकने की दृष्टि से जो अवक्तव्य धर्म फलित होता है वह उन-उन सप्तभंगियों में जुदा-जुदा ही है यानी सत् और असत् को युगपत् न कह सकने के कारण जो अवक्तव्य धर्म होगा वह एक और अनेक धर्मों को युगपत् न कह सकने के कारण फलित होने वाले अवक्तव्य भंग से जुदा होगा । अवक्तव्य और वक्तव्य को लेकर जो सप्तभंगी चलेगी उसमें का अवक्तव्य भी वक्तव्य और अवक्तव्य को न कह सकने के कारण ही फलित होगा। वह भी एक धर्म रूप हो होगा। सप्तभंगी में जो अवक्तव्य धर्म विवक्षित है वह दो धर्मों के युगपत् Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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