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१५४ जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय की आधुनिक व्याख्या स्त्येव और स्यान्नास्त्येव भङ्ग के कथन से स्यादस्त्येव का बोध हो जाता है । जब कोई वस्तु स्व-रूप से सत्तात्मक है और वही वस्तु पर-रूप से असत्तात्मक है, तब "स्यादस्ति", स्यान्नास्ति आदि भङ्गों को अलग-अलग कहना व्यर्थ है। ___ यद्यपि यहाँ यह कहना ठीक है कि एक ही वस्तु में सत्त्व और असत्त्व दोनों धर्म अपेक्षाभेद से रहते हैं, पर एक ही वस्तु में रहने मात्र से दोनों धर्म एक नहीं हो सकते। सत्त्व और असत्त्व दोनों एक दूसरे से भिन्न और स्वतन्त्र हैं। जो सत्त्व है वह असत्त्व नहीं हो सकता और जो असत्त्व है वह सत्त्व नहीं हो सकता। यदि उन्हें एक दूसरे से पृथक् न माना जाय तो स्व-रूप से सत्त्व धर्म के ग्रहण सदृश पर रूप से भी सत्त्व धर्म के ग्रहण मानने का प्रसंग आ जायेगा और पर-रूप से असत्त्व धर्म की तरह स्व-रूप से भी असत्त्व धर्म के ग्रहण का प्रसंग आ जायेगा। ऐसा हो सकता कि वस्तु को ऊपर-ऊपर से देखने पर उसके धर्मों में भिन्नता न प्रतीत होती हो, पर थोड़ा गहराई से विचार करने पर यह बात पूर्णतः स्पष्ट हो जाती है। कहने का आशय यह है कि जिस प्रकार स्व-रूप से सत्त्व धर्म की अनुभूति होती है, उसी प्रकार पर-रूप से असत्त्व धर्म की प्रतीति होती है। इन दोनों में भिन्न-भिन्न प्रकार का ज्ञान होता है । अतः भिन्न-भिन्न ज्ञान के लिए भिन्न-भिन्न भङ्ग का होना आवश्यक है; क्योंकि एक ही भङ्ग दो तरह का ज्ञान नहीं दे सकता है अर्थात् स्यादस्त्येव भङ्ग से जो ज्ञान उत्पन्न हो सकता है वह स्यान्नास्त्येव से कदापि नहीं हो सकता है और जो ज्ञान स्यान्नास्त्येव भङ्ग देता है वह स्यादस्त्येव भङ्ग भी कथमपि नहीं दे सकता । उदाहरणार्थ "वह घर में नहीं है", ऐसा कहने पर यह मालूम नहीं हो सकता कि वह अमुक स्थान पर है। घर में न होने पर भी "वह कहाँ है" इस बात की जिज्ञासा तो बनी ही रहती है। इसीलिए "अस्ति भङ्ग' की आवश्यकता है । ठीक इसी प्रकार नास्ति भङ्ग की भी।
अब कदाचित् ऐसा कहा जाय कि भङ्ग के पूर्व में प्रयक्त "स्यात्" शब्द अनेकान्तता का सूचक है, उससे तो सत्त्व-असत्त्व आदि सभी धर्मों की सूचना मिल जाती है । तब उसके अलग अलग भङ्गों में कहने की क्या आवश्यकता है? यद्यपि यह कहना सत्य है कि "स्यात्" पद सत्त्व असत्त्व आदि अनेक धर्मों का सूचक है। परन्तु उनमें से सत्त्व-असत्त्व के विशेष
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